SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 पर है जिसमें प्रायश्चितों का वर्णन है । इसी पर एक स्वोपज्ञभाष्य (2606 गाथायें) भी मिलता है जिसम बृहत्कल्प, लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्प महाभाष्य, पिण्डनियुक्ति आदि की गाथायें शब्दशः उद्धृत हैं । बृहत्कल्प लघुभाष्य के रचयिता संघदासगणि क्षमाश्रमण जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं जिन्होंने इस छ: उद्देश्यों और 6490 गाथाओं में पूरा किया है। इसमें जिनकल्पिक और स्थविर कल्पिक साधु-साध्वियों के आहार, विहार, निवास आदि का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। सांस्कृतिक सामग्री से यह ग्रन्थ भरा हुआ है। इन्हीं प्राचार्य का पंचकल्प महाभाष्य (2665 गाथायें) भी मिलता है । बृहत्कल्प लघु-भाष्य के समान बृहत्कल्प वृहद्भाष्य भी लिखा गया है पर दुर्भाग्य से - अभी तक वह अपूर्ण ही अलब्ध है । इस संदर्भ में व्यवहारभाष्य (दस उद्देश), अोपनियुक्ति लधुभाष्य (322 गा.), प्रोपनियुक्त बृहद्भाष्य (2517 गा.) और पिण्डनियुक्ति भाष्य (46 गा.) भी उल्लेखनीय हैं । ग. चूणि साहित्यः--पागम साहित्य पर नियुवितयों और भाष्यों के अतिरिक्त चूर्णियों की भी रचना हुई है । पर वे पद्य में न होकर गद्य में हैं और शुद्ध प्राकृत भाषा में न होकर प्राकृत संस्कृत मिश्रित हैं । सामान्यतः यहां संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत का प्रयोग अधिक हुआ है। चणि कारों में जिनदासगणि महत्तर और सिद्धसेनसरि अग्रगण्य हैं । जिनदासगणि महत्तर (लगभग सं. 650-750) ने नन्दी, अनुयोगद्वार, पावश्यक, दशव कालिक, उत्तराध्ययन,प्राचारांग, सूत्रकृतांग, बृहत्कल्प, व्याख्याप्रज्ञप्ति, निशीथ और दशाश्रु तस्कन्ध पर चूणियां लिखी हैं तथा जीतकल्प चूणि के कर्ता सिद्धसेनसूरि (वि. सं. 1227) हैं । इनके अतिरिक्त जीवाभिगम, महानिशीथ, व्यवहार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प्रादि ग्रन्थों पर भी चूणियां लिखी गई हैं । इन चूर्णियों में सांस्कृतिक तथा कथात्मक सामग्री भरी हुई है। घ. टीका साहित्यः--पागम को और भी स्पष्ट करने के लिये टीकाय लिखी गई है। इनको भाषा प्रधानतः संस्कृत है पर कथाभाग अधिकांशतःप्राकृत में मिलता है। आवश्यक, दशवकालिक, नन्दी और अनयोगद्वार पर हरिभद्रसूरि (लगभग 700-770 ई.) की, प्राचारांग और सूत्रकृतांग पर शीलाचार्य (वि. सं. लगभग 900-1000) की, अंग सूत्रों पर अभयदेवसूरि की, अनेक आगमों पर मलयगिरि की, उत्तराध्ययन पर शिष्यहिता टीका शान्तिसरि ( 11वीं शती) की तथा सुखबाधा टीका देवेन्द्रगणि नेमिचन्द्र की विशेष उल्लेखनीय है। संस्कृत टीकाओं में विवरणों और तयों की तो एक लम्बी संख्या है जिसका उल्लेख करता यहां अप्रासंगिक होगा। 3. कर्म साहित्य पूर्वोक्त प्रागम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत में लिखा गया है । इसे परम्परानुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्वीकार करता है परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय किन्हीं कारणोंवश उसे लुप्त हुअा मानता है । उसके अनुसार प्रांशिक ज्ञान मुनि-परम्परा में सुरक्षित रहा । उसी के आधार पर प्राचाय धरसेन के सान्निध्य में षट्खण्डागम की रचना हुई। षट्खण्डागम दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के चयन-लब्धि नामक पांचवें अधिकार के चतुर्थ पाहुड (प्राभृत)कर्मप्रकृति पर आधारित है । इसलिय इसे कर्मप्राभृत भी कहा जाता है । इसके प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा के रचयिता पुष्पदन्त हैं और शेष भाग को प्राचार्य भूतबलि' ने लिखा है । इनका समय महावीर निर्वाण के 600-700 वर्ष बाद माना जाता है ।। सत्प्ररूपणा में 177 सूत्र है । शेष ग्रन्थ 6000 सूत्रों में रचित है । कर्मप्राभृत के छः खण्ड है-जीवट्ठाण (2375 सूत्र), खुद्दाबन्ध (1582 सूत्र), बन्धसामित्तविचय (324 सूत्र), वेदना (144 सूत्र), वग्गणा (962 सूत्र) और टिप्पणी:-1. षट्खण्डागम, पुस्तक 1, प्रस्तावना पु. 21-31.
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy