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________________ 14. आम्रकवि (10वीं शती) का चउप्पन महापुरिस चरिय (103 अधिकार), सोमप्रभाचार्य, (सं 1199) का सुमईनाहचरिय (9621 श्लोक परिमाण), लक्ष्मणगणि (सं. 1199) का सुपासनाहचरिय (8000 गा.), नेमिचन्द्रसूरि (सं. 1216) का अनंतनाहचरिय (1200 गा.), श्रीचन्द्र सूरि (सं. 1199) का मुनिसुव्धयसामिचरिय (10994 गा.) तथा गुण चन्द्रसूरि (सं. 1139) और नेमिचन्द्रसूरि (12वीं शती) के महावीर चरित्र (क्रमशः 12025 और 2385 श्लोक प्रमाण) काव्य विशेष उल्लेखनीय हैं। ये ग्रन्थ प्रायः पद्यबद्ध हैं। कथावस्तु की सजीवता व चरित्र-चित्रण की मार्मिकता यहां स्पष्टतः दिखाई देती है। द्वादश चक्रवर्तियों तथा अन्य शलाका पुरुषों पर भी प्राकृत रचनायें उपलब्ध हैं । श्रीचन्द्रसूरि (सं. 1214) का संणकुमार चरिय (8127 श्लोक प्रमाण), संघदासगणि और धर्मदासगणि (लगभग 5वीं शती) का वसूदेवहिण्डी (दो खण्ड) तथा गुणपालमनि का जम्बूचरिय (15 उद्देश्य) इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं । इन काव्यों में जैन धर्म, इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश डालने वाले अनेक स्थल है । लिखे ग भगवान महावीर के बाद होने वाले अन्य प्राचार्यों और साधकों पर भी प्राकृत काव्य सूरि (सं. 1261) का प्रत्येकबुद्धचरित (6050 श्लोक प्रमाण) उनमें प्रमुख है । इसके अतिरिक्त कुछ और पौराणिक काव्य मिलते है जो आचार्यों के चरित्र पर आधारित है जैसे कालकाचार्य कथा आदि । जनाचार्यों ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कतिपय प्राकृत काव्य लिखे हैं । कहीं राजा, मन्त्री अथवा श्रेष्ठी नायक हैं तो कहीं सन्त, महात्मा के जीवन को काव्य के लिये चुना गया है। उनकी दिग्विजय, संघयात्रायें तथा अन्य प्रासंगिक वर्णनों में अतिशयोक्तियां भी झलकती हैं। वहां काल्पनिक चित्रण भी उभरकर सामने आये हैं। ऐसे स्थलों पर इतिहासवेत्ता को पूरी सावधानी के साथ सामग्री का चयन करना अपेक्षित है। हेमचन्द्रसूरि का द्वयाश्रय महाकाव्य चालुक्यवंशीय कुमारपाल महाराजा के चरित का ऐसा ही चित्रण करता है । इस ग्रन्थ को पढ़कर भट्टिकाव्य, राजतरंगिणी तथा विक्रमांकदेव चरित्र जैसे ग्रन्थ स्मृति पथ में पाने लगते हैं। इतिहास के निर्माण में प्रशस्तियों और अभिलेखों का भी महत्व होता है। श्रीचन्द्रसूरि के मुनिसुव्वयसामिचरिय (सं. 1193) की 100 गाथाओं की प्रशस्ति में संघ शाकम्भरी नरेश पृथ्वीराज, सौराष्ट्र नरेश बंगार आदि का वर्णन है । साहित्य जहां मौन हो जाता है वहां अभिलेख बात करने लगते हैं। प्राकृत में लिखे प्राचीनतम अभिलेख के रूप में बारली (अजमेर से 38 मील दूर) में प्राप्त पाषाण खण्ड पर खुदी चार पंक्तियां हैं जिनमें वीर निर्वाण संवत् 84 उत्कीर्ण है। अशोक के लेख इसके बाद के हैं। उनमें भी प्राकृत रूप दिखाई देते है। सम्राट खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख, मथुरा और धमोसा से प्राप्त शिलालेख तथा घटियाल (जोधपुर) का शिलालेख (सं.918) इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । कई मूर्ति लेख भी प्राकृत में मिलते हैं । नाटकों का समावेश दश्यकाव्य के रूप में होता है। इसमें संवाद, संगीत, नृत्य और अभिनय संन्निहित होता है। संस्कृत नाटकों में साधारणतः स्त्रियां, विदूषक तथा निम्नवर्ग के किंकर, धूर्त, विट, भूत, पिशाच आदि अधिकांश पात्र प्राकृत ही बोलते हैं । पूर्णतया प्राकृत में लिखा नाटक अभी तक उपलब्ध नहीं हआ। नयचन्द्रसूरि की सड़क कृति नयमंजरी अवश्य मिली है जो कर्पूरमंजरी के अनुकरण पर लिधी गई है। इसमें प्राकृत के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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