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8. कथा साहित्य
जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में विपुल कथा साहित्य का निर्माण किया है । उनका मुख्य उद्देश्य कर्म, दर्शन, संयम, तप, चरित्र, दान आदि को महत्व को स्पष्ट करना रहा है । श्रागम साहित्य इन कथाओं का मूल स्रोत है । आधुनिक कथाओं क े समान यहां वस्तु, पात्र, संवाद, इ शकाल, शैली और उद्देश्य के रूप में कथा के अंग भी मिलते हैं । नियुक्त, भाष्य, चूर्ण, टीका आदि ग्रन्थों में उपलब्ध कथायें उत्तर कालीन विकास को इंगित करती है । यहां अपेक्षा कृत सरसता और स्पष्टता अधिक दिखाई देती है ।
समूचे प्राकृत साहित्य को अनेक प्रकार से विभाजित किया गया हूँ । आगमों में कथा, विकथा और कथा ये तीन भेद किये गये हैं । कथा में लोककल्याण का हेतु गर्मित होता है । शेष त्याज्य है । विषय की दृष्टि से चार भेद हैं-प्रक्षेपणी, अर्थ, काम और मिश्रकथा | धर्मकथा के भी चार भेद हैं-प्रक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी । जैनाचार्यों ने इसी प्रकार को अधिक अपनाया है । पात्रों के आधार पर उन्हें दिव्य, मानुष और मिश्रकथाओं के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है ।" तीसरा वर्गीकरण भाषा की दृष्टि से हुआ है – संस्कृत, प्राकृत, और मिश्र । उद्योतनसूरि ने शैली की दृष्टि से इसके पांच भेद किये हैं. सकल कथा, खण्ड कथा, उल्लाप कथा, परिहास कथा और संकीर्ण कथा । प्राकृत साहित्य में में मिश्रकथायें अधिक मिलती हैं । इन सभी कथा-ग्रन्थों का परिचय देना यहां सरल नहीं । इसलिए विशिष्ट ग्रन्थों काही उल्लेख किया जा रहा है ।
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कथा संग्रह: - जैनाचार्यों ने कुछ ऐसी धर्मकथाओं का संग्रह किया है जो साहित्यकार के लिये सदैव उपजीव्य रहा है । धर्मदासगण ( 10वीं शती) के उपदेशमाला प्रकरण ( (542 गा.) में 310 कथानकों का नामोल्लेख है और टीकाओं में उनका चरित्र संग्रह है । जयसिंहसूरि (वि सं. 915 ) का धर्मोपदेशमाला विवरण ( 159 कथायें ), देवभद्रसूरि ( सं. 1108) का कहारयणकास (12300 श्लोक प्रमाण और 50 कथायें ), देवेन्द्रगणि (सं. 1129) का अक्खाण्यमणिकोस ( 127 कथानक ) आदि महत्वपूर्ण कथा संग्रह है जिनमें धर्म के विभिन्न आयामों पर कथानकों क े माध्यम से दृष्टांत प्रस्तुत किये गये हैं । ये सर्वसाधारण के लिए बहुत उपयोगी हैं ।
उपर्युक्त कथानकों अथवा लोककथाओं का आश्रय लेकर कुछ स्वतन्त्र कथा साहित्य का भी निर्माण किया गया है जिनमें धर्माराधना के विविध पक्षों की प्रस्तुति मिलती है । उदाहरणतः हरिभद्रसूरि (सं. 717-827) की समराइच्च कहा ऐसा ही ग्रन्थ है जिसमें महाराष्ट्रीय प्राकृत गद्य में 9 प्रकरण है और उनमें समरादित्य और गिरिसैन के 9 भवों का सुन्दर वर्णन है । इसी कवि का धूर्ताख्यान ( 480 गा.) भी अपन े ढंग की एक निराली कृति है जिसमें हास्य और व्यंग्यपूर्ण मनोरंजक कथायें निबद्ध हैं । जयराम की प्राकृत धम्मपरिक्खा भी इसी शैली में रची गई उत्तम कृति है ।
यशोधर और श्रीपाल के कथानक प्राचार्यों को बड़े रुचिकर प्रतीत हुए । सिरिवालकहा (1342 गा. ) को रत्नशेखरसूरि ने संकलित किया और हेमचन्द्र साधु (सं. 1428)
1. दशवैकालिक गा. 188; समराइच्च कहा- पृ. 2
2. समराइच्चकहा- पृ. 21
3. लीलावईकहा- 36,
4. कुवलयमाला - 4ui