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संस्कृत साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियाँ 1.
-मुनि श्री नथमल
भगवान महावीर के यग में संस्कृत पंडितों की भाषा बन गई थी। भाषा के आधार पर दो वर्ग स्थापित हो गये थे-एक वर्ग उन पंडितों का था, जो संस्कृतविदों को ही तत्वद्रष्टा मानते थे और संस्कृत नहीं जानने वालों की बुद्धि पर अपना अधिकार किये हुए थे। दूसरा वर्म उन लोगों काथा, जो यह मानते थे कि संस्कृतविद् ही तत्व की व्याख्या कर सकते हैं ।
__ भगवान् महावीर ने अनुभव किया कि सत्य को खोजने की क्षमता हर व्यक्ति में है । उस पर भाषा का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता । जिसका चित्त राग-द्वेष शून्य है, वह संस्कृत विद् न होने पर भी सत्य को उपलब्ध हो जाता है औ नहीं होता है, वह संस्कृतविद् होने पर भी सत्य को उपलब्ध नहीं होता । सत्य और भाषा का गठबन्धन नहीं है-इस सिद्धांत के प्रतिपादन के लिये भगवान महावीर ने जनभाषा प्राकृत को सत्य-निरूपण का माध्यम बनाया ।
भगवान महावीर ने प्राकृत में उपदेश किया। उनके प्रमुख शिष्य गौतम आदि गणधरों ने उसका प्राकृत में ही गंफन किया। उनके निर्वाण की पंचम शताबदी तक धर्मोपदेश तथा ग्रंथ-रचना में प्राकृत का ही उपयोग होता रहा । निर्वाण की छठी शताब्दी में फिर संस्कृत का स्वर गुंजित हुआ । आर्य रक्षित ने संस्कृत और प्राकृत दोनों को ऋषि भाषा कहा। उनकी यह ध्वनि स्थानांग के स्वरमण्डल में भी प्रतिध्वनित हई । उमास्वाति (स्वामी) ने मोक्षशास्त्र (तत्वार्थसूत्र) का संस्कृत में प्रणयन किया । उनका अस्तित्वकाल विक्रम की तीसरी से पांचवी शताब्दी के मध्य माना जाता है । जैन परम्परा में इसी कालावधि में संस्कृत युग प्रारम्भ हुआ । जैन आचार्यों ने प्राकृत को तिलाञ्जलि नहीं दी । प्राकृत में ग्रंथ-रचना का कार्य अनवरत चलता रहा । भगवन् महावीर ने लोक-भाषा के प्रति जो दृष्टिकोण निर्मित किया था, उसे विस्मत नहीं किया गया और संस्कृत के अव्येताओं में जो पांडित्य-प्रदर्शन भावना थी, उसे मी स्मति में रखा गया। फिर भी दर्शन-यग की स्थापना के काल में जैन दर्शन को प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से संस्कृत की अनिवार्यता अनुभव की । सिद्धर्षि ने जैन लेखकों की इस अनुभूति को स्पष्ट अभि व्यक्ति दी है । उन्होंने लिखा है :
संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमहंतः । तत्रापि संस्कृता तावद्, दुर्विदग्ध हदि स्थिता ॥ बालानामपि सदबोध-कारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा, न तेषामभिभाषते ॥ उपाये सति कर्त्तव्यं, सर्वेषां चित्तरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन, संस्कृतेयं करिष्यते ॥
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1. आर्यरक्षित का जन्म काल: ईस्वी पूर्व 4 (वि.सं. 52), दीक्षा ई. स. 18 (वि. सं. 74),
युगप्रधान ई. स. 58 (वि. सं. 114), स्वर्गवास ई. स. 71 (वि. सं. 127) । 2. अणुओग हाराई, स्वरमण्डल:
सक्कयं पागयं चेव, पसत्यं इसिभासियं ।