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"संस्कृत और प्राकृत--ये दो प्रधान भाषाएं हैं । संस्कृत दुर्विदग्ध-पंडितमानी जनों के हृदय में बसी हई है। प्राकृत भाषा जन साधारण को प्रकाश देने वाली और श्रुति-मधर है, फिर भी उन्हें वह अच्छी नहीं लगती। मेरे सामने संस्कृतप्रिय जनों के चित्तरंजन का उपाय है। इसलिये उनके अनुरोध से मैं प्रस्तुत कथा को संस्कृत भाषा में लिख
गुप्त साम्राज्य-काल में संस्कृत का प्रभाव बहुत बढ गया । जैन और बौद्ध परम्पराओं में भी संस्कृत भाषा प्रमुख हो गई ।
उत्तर भारत में गुजरात और राजस्थान दोनों जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे । इन दोनों में जैन मुनि स्थान-स्थान पर विहार करते थे। उनकी साहित्य-साधना भी प्रचुर मात्रा में हुई । राजस्थान की जैन परम्परा में संस्कृत-साहित्य के प्रथम निर्माता हरिभद्रसूरि हैं । उनका अस्तित्व-काल विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी (757-857) है। उन्हें प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त था। उनकी लेखनी दोनों भाषाओं पर समान रूप से चली। उनकी प्राकृत रचनाएं जितनी विपुल संख्या में और जितनी महत्वपूर्ण हैं, उतनी ही महत्वपूर्ण और उतनी ही विपुल संख्या में उनकी संस्कृत रचनाएं हैं। उन्होंने धर्म, योग, दर्शन, न्याय, अनेकान्त, आचार, अहिंसा आदि अनेक विषयों पर लिखा। आगम सूत्रों पर अनेक विशाल व्याख्या ग्रन्थ लिखे ।
. जैन दर्शन ने सत्य की व्याख्या नय-पद्धति से की। तीर्थकर का कोई भी वचन नयपन्य नहीं है-इस उक्ति की प्रतिध्वनि यह है कि कोई भी वचन निरपेक्ष नहीं है। प्रत्येक वचन को नयदष्टि से ही समझा जा सकता है। सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने अनेकान्त और नयवाद को दार्शनिक धरातल पर प्रस्फुटित किया । उसके पल्लवनकारों में हरिभद्रसूरि का एक प्रमुख व्यक्तित्व है । उन्होंने संस्कृत साहित्य को कल्पना और अलंकार की कसौटी से कसे हए कवित्व तथा तर्कवाद और निराकरण प्रधान शैली से परिपूष्ट ताकिकता से ऊपर उठाकर स्वतन्त्र चिन्तन और समन्वय की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। उनके लोकतत्वनिर्णय नामक ग्रन्थ में स्वतंत्र चिन्तन की ऐसी चिरंतन व्याख्या हुई है, जिसे कालातीत कहा जा सकता है । उन्होंने लिखा है :--
मातृमोदकवद् बालाः, ये गुण्हन्त्यविचारितम् । ते पश्चात् परितप्यन्ते, सुवर्णग्राहको यथा ॥1
मां के द्वारा दिये हए मोदक को बिना किसी विचार के ले लेने वाले बालक की भांति बिना विचार किए दूसरे के विचार को स्वीकार करने वाला वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे बिना परीक्षा किए स्वर्ण को खरीदने वाला पछताता है । सुनने के लिये कान है। विचारणा के लिये वाणी और बुद्धि है । फिर भी जो व्यक्ति श्रुत विषय पर चिन्तन नहीं करता, वह कर्तव्य को कैसे प्राप्त हो सकता है :--
श्रोतव्ये च कृती कर्णो, वाम्बुद्धिश्च विचारणे । । यः श्रुतं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ? ॥
1. लोकतत्वनिर्णय, 19
2. लोकतत्वनिर्णय, 20