________________
आगम-युग में श्रद्धा पर बहुत बल दिया गया । ईश्वरीय प्रादशों और प्राप्त-वचनों पर संदेह नहीं किया जा सकता। इस मान्यता ने चिन्तन की धारा को क्षीण बना दिया था। अधिकांश लोग किसी व्यक्ति की पाणी या ग्रन्थ को बिना किसी चिन्तन के स्वीकार कर लेते थे । इस परम्परा ने रूढिवाद की जडें बहत सुदढ बना दी थीं। उन्हें तोडना श्रम-साध्य था। वैसे वातावरण में दूसरों पर भरोसा कर चलने को बुरा कहने वाले के लिये अच्छा नहीं था। फिर भी कहा गया :--
हठो हठे यद्वदभिप्लुतः स्यात्, नौ वि बद्धा च यथा समुद्रे । तथा पर-प्रत्ययमात्रदक्ष:, लोकः प्रमादाम्भसि बाम्म्रमीति ॥
'जो व्यक्ति दूसरों की वाणी का अनुसरण करने में ही दक्ष है, वह प्रमाद के जल म वैसे ही भ्रमण करता है, जैसे जलकुंभी का पौधा दुसरे पौधे के पीछे-पीछे बहता है और जैसे नाव से बंधी हुई नाव उसके पीछे-पीछे चलती है।'
हरिभद्रसूरि को समन्वय का पुरोधा और उनकी रचनाओं को समन्वय की संहिता कहा जा सकता है। जब सम्प्रदायों में अपने-अपने इष्टदेव के नाम की महिमा गाई जा रही थी, उस समय यह स्वर कितना महत्वपूर्ण था :--
यस्य निखिलाश्च दोषाः न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥
'जिसके समस्त दोष नष्ट हो चुके हैं, सब गुण प्रकट हो गये है, उसे मेरा नमस्कार है, फिर वह ब्रह मा हो या विष्णु, महादेव हो या जिन ।'
हरिभद्रसूरि ने योग की विविध परम्पराओं का समन्वय कर जैन योग-पद्धति को नया रूप प्रदान किया था । 'योगविशिका' प्राकृत में लिखित है। संस्कृत में उनकी दो महत्वपूर्ण कृतिया है 'योगदष्टिसमुच्चय' और 'योगबिन्दु'। उनमें जैन योग और पतंजलि की योग-पद्धति का तुलनात्मक अध्ययन बहुत सूक्ष्म मति से किया गया है । अनेकान्त-दृष्टि प्राप्त होने पर सांप्रदायिक अभिनिवेश समाप्त हो जाता है ।
विक्रम को आठवीं शती में संस्कृत-साहित्य की जो धारा प्रवाहित हुईं, वह वर्तमान शती तक अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित है। वह कभी विशाल हुई है और कभी क्षीण, पर उसका अस्तित्व निरन्तरित रहा है । जैन परम्परा के संस्कृत-साहित्य पर अभी कोई व्यवस्थित कार्य नहीं हुआ है । लेखक, लेखनस्थान, लेखन-काल ये सब अभी निर्णय की प्रतीक्षा में हैं । अब तक 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस शीर्षक से जितने प्रबन्ध लिखे गए हैं, वे या तो जैन परम्परा के संस्कृत-साहित्य का स्पर्श नहीं करते या दो चार प्रसिद्ध ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत कर विषय को सम्पन्न कर देते हैं । जैन विद्वान् भी इस कार्य के प्रति उदासीन रहे हैं । इन दिनों कुछ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, पर वे अपेक्षा के अनुरूप शोधपूर्ण और वैज्ञानिक पद्धति से लिखित नहीं हैं। मैं इस अपेक्षा को इसलिये प्रस्तुत कर रहा है कि जैन परम्परा के 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' इस विषय का एक महाग्रन्थ आधुनिक शैली में तैयार किया जाए । मैं नहीं मानता। कि इस लघकाय निबन्ध में मैं राजस्थान के जैन लेखकों की सभी संस्कृत रचनाओं के साथ न्याय कर सकूँगा।
1. लोकतत्वनिर्णय, 14
लोकतत्वनिर्णय, 20