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________________ 101 शती) ने गणितसार कौमुदी नामक ग्रन्थ लिखा। उनके अन्य ग्रन्थ है-रत्न-परीक्षा (132 गा.), द्रव्यपरीक्षा (149 गा.), धातूपति (57 गा.), भूगर्भप्रकाश आदि। यहां यतिवृषभ (छठी शती)की तिलायपण्णत्ति का भी उल्लेख किया जा सकता है जिसमें लेखक ने जैन मान्यतानुसार त्रिलाक सम्बन्धी विषय को उपस्थित किया है। यह अठारह हजार श्लोक प्रमाण ग्रन्थ है। ज्योतिष विषयक ग्रन्थों में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि अंगबाह्म ग्रन्यों के अतिरिक्त ककर फेरु का ज्योतिषसार (98. गा.), हरिभद्रसूरि को लग्गद्धि (133 गा.), रत्नशेखर सूरि (15वीं शता) को दिगसुद्धि (144 गा.), हीरकलश (सं. 1621) का ज्योतिस्सार आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। निमित्तशास्त्र में भौम, उत्पात, स्वप्न अंग अन्तरिक्ष, स्वर, लक्षण, व्यजन आदि निमित्तों का अध्ययन किया गया है। किसी अज्ञात कवि का जयपाहुड (378 गा.). धरसेन का जोणिपाहड, ऋषिपुत्र का निमितशास्त्र (187 गा.), दुर्गदेव (सं. 1089) का रिसमुच्चय (261 गा.) आदि रचनाएं प्रमुख हैं। अंगविज्जा एक अज्ञात कर्तृक रचना है जिसमें 60 अध्यायों में शुभाशुभ निमित्तों का वर्णन किया गया है । कुमाणकालान यह ग्रन्थ सांस्कृतिक सामग्री से भरा हुआ है । करलक्णण (61 गा.) भी किसी अज्ञात कवि की रचना है। जिसमें हाथ के लक्षण, रेखाओं आदि का वर्णन है। वास्तु-शिल्प शास्त्र के रूप में ठक्कर फरु का वास्तूसार (280 गा.) प्रतिष्ठित ग्रन्थ है जिसमें भूमिपरोक्षा, भूमिशोधन आदि पर विवेचन किया गया है। इसी कवि की एक अन्य कृति रत्नपरीक्षा (132 मा.) पद्मराग, मुक्ता, विद्रुम आदि 16 प्रकार के रत्नों की उत्पत्ति स्थान, आकार, वर्ण, गुण, दोष आदि पर विचार किया गया है। उन्हों की द्रव्यपरीक्षा (149 गा.) में सिक्का के मल्य, तौल, नाम आदि पर तथा धातुत्पति (57 गा.) में पीतल, तांबा आदि धातुनों पर तथा भूगर्भप्रकाश में ताम्र, स्वर्ण आदि द्रब्ध वाली पृथ्वी की विशेषताओं पर विशद प्रकाश डाला गया है। ये सभी ग्रन्थ वि. सं. 1372-75 के बीच लिखे गये हैं। इस प्रकार प्राकृत साहित्य के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने उसकी हर विधा को समृद्ध किया है। प्रस्तुत निबन्ध में स्थानाभाव के कारण सभी का उल्लेख करना तो सम्भव नहीं हो सका, परन्तु इतना ता अवश्य कहा जा सकता है कि प्राकृत जैन साहित्य लगभग पच्चीस सो वर्षों से साहित्य के हर क्षेत्र का अपने यागदान से हरा भरा करता पा रहा है। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्थति का हर प्रांगण प्राकृत साहित्य का ऋणी है। उसने लाकभाषा और लोक-जीवन को अंगीकार कर उनकी समस्याओं के समाधान की दिशा में आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत किया। इतना ही नहीं, आधुनिक साहित्य के लिए भी वह उपजीव्य बना। प्रेमाख्यानक काव्यों के विकास में प्रात जैन कथा साहित्य को भुलाया नहीं जा सकता। संस्कृत चम्पू और चरित काव्य के प्रेरक प्रापत ग्रन्थ ही हैं। काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का सरस प्रतिपादन भी यहां हमा है। दर्शन और सिद्धान्तों से लेकर भाषाविज्ञान, व्याकरण और इतिहास तक सब कुछ प्राकृत जैन साहित्य में निबद्ध है। उसके समूचे योगदान का मूल्यांकन अभी शेष है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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