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जैन लेखन कला
-भंवरलाल नाहटा
गजरात की यह कहावत सर्वथा सत्य है कि सरस्वती का पीहर जैनों के यहां है। भगवान ऋषभदेव ही मानव संस्कृति के जनक थे, उन्होंने ही परम्परागत युगलिक धर्म को हटाकर कर्मभूमि के असि, मसि और कृषि लक्षण को सार्थक किया। समस्त ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के वे प्रथम शिक्षक आदि पुरुष होने से उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लेखन-कला लिपिविज्ञान सिखाया, इसी से उसका नाम ब्राह्मी लिपि पड़ा। आवश्यक नियुक्ति भाष्य गाथा 13 में "लेहं लिवी विहाणं जिणेण बंभीइ दाहिण करेण” लिखा है एवं पंचमांग भगवती सूत्र में भी सर्वप्रथम 'नमो बंभीए लिवीए' लिखकर अठारह लिपियों में प्रधान ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है। बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तरा में 64 लिपियों के नाम हैं जिनमें भी प्रथम ब्राह्मी और खरोष्टी का उल्लेख है। बायीं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाने वाली समस्त लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि सेहआ है। दाहिनी ओर से बायीं ओर लिखी जाने वाली लिपि खरोष्टी है और उसी से अरबी, फारसी, उर्दू आदि भाषाए निकली है। चीनी भाषा के बौद्ध विश्वकोश के अनुसार ब्रह्मा और खरोष्ट भारत में हुए हैं और उन्होंने देवलोक से लिपियां प्राप्त की तथा ऊपर से नीचे खत्री लिखी जाने वाली लिपि संको है जो चीन के अधिवासी त्संकी ने पक्षियों आदि के चरण चिन्हों से निर्माण की थी।
यद्यपि भगवान ऋषभदेव को असंख्य वर्ष हो गए और लिपियों का उसी रूप मे रहना असंभव है और न हमारे पास उस विकास क्रम को कालावधि मे पाबद्ध करने वाले साधन ही उपलब्ध है। वर्तमान लिपियों का सम्बन्ध ढाई हजार वर्षों की प्राप्त लिपियों से जुड़ता है। यों मोहन-जोदडो और हडप्पा आदि की संस्कृत में पाच हजार वर्ष को लिपियां प्राप्त हुई हैं तथा राजगह एवं वाराणसी के अभिलेख जिसे विद्वानों ने “शंख लिपि" का नाम दिया है, पर अद्यावधि उन लिपियों को पढ़ने में पुरातत्वविद् और लिपि विज्ञान के पण्डित भी अपने को अक्षम पाते हैं। ब्राह्मी लिपि नाम से प्रसिद्ध लिपि का क्रमिक विकास होता रहा और उसी विकास का वर्तमान रूप अपने-अपने देशों व प्रान्तों की जलवायु के अनुसार विकसित वर्तमान भाषा-लिपियां हैं। खरोष्टी लिपि 'सैमेटिक वर्ग' की है और उसका प्रचा।कारी शती पर्यन्त पंजाब में था और उसके बाद वह लुप्त हो गई । पन्नवणा सूत्र में कुल लिपियों के नामोल्लेख के अतिरिक्त समवायाग सुरू के 18वे समवाय में अठारह लिपियों के नाम एवं विशेषावश्यक टीका के अठारह लिपि नामों में कुछ अन्तर पाया जाता है। जो भी हो हमें यहां जैन लेखन कला और उसके विकास पर प्रकाश डालना अभीष्ट है।
भगवान् महावीर की वाणी को गणधरों ने ग्रथित को तथा भगवान पार्श्वनाथ के शासा का वाङमय जो मिल-जुलकर एक हो गया था विशेषत: मौखिक रूप में ही निग्रंथ परम्परा में चला आता रहा । आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने वीर निर्वाण संवत् 980 में वल्लभी में आगमों को ग्रन्थारूढ लिपिबद्ध किया तब से लेखन-कला का अधिकाधिक विकास प्रा । आः पूर्व कथंचित् आगम लिखाने का उल्लेख सम्राट खारवेल के अभिलेख में पाया जाता है एवं अनुयोगद्वार सूत्र में पुस्तक पनारूढ श्रुत को द्रव्य-श्रुत माना है पर अधिकांश आगम मौखिक ही रहते थे, लिखित