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प्रागमों का प्रचलन नहीं था, क्योंकि श्रमण वर्ग अधिकतर जंगल, उद्यान और गिरिकन्दराओं में निवास करते और पुस्तकों को परिग्रह के रूप में मानते थे। इतना ही नहीं, वे संग्रह करना असंभव और प्रायश्चित योग्य मानते थे, निशीथ भाष्य, कल्प भाष्य, दशवकालिक चणि में इसका स्पष्ट उल्लेख है। परन्तु पंचम काल के प्रभाव से क्रमशः स्मरण शक्ति का ह्रास हो जाने से श्रुत साहित्य को ग्रन्थारूढ करना अनिवार्य हो गया था। अतः श्रुतधर प्राचार्य ने समस्त संघ समवाय में श्रुतज्ञान की वृद्धि के लिए ग्रन्थारूढ करने की स्वीकृति को संयम व द्धि का कारण मान्य किया और उसी सन्दर्भ में ग्रन्थ व लेखन सामग्री का संग्रह व विकास होने लगा।
लिपि और लेखन उपादान :
श्रुत लेखन में लिपि का प्राधान्य है । जैनाचार्यों ने भगवती सूत्र के प्रारम्भ में 'नमो बंभीए लिवीए' द्वारा भारत की प्रधान ब्राह्मी लिपि को स्वीकार किया। इसी से नागरी शारदा, ठाकरी, गुरुमुखी, नेवारी, बंगला, उड़िया, तेलगु, तामिल, कन्नडी, राजस्थानी, गुप्त, कूटिल, गजराती, महाजनी और तिब्बती आदि का क्रमिक विकास हुआ। उत्तर भारत के ग्रन्थों में देवनागरी लिपि का सार्वभौम प्रचार हुआ। स्थापत्य लेखों के लिए अधिकतर पाषाण शिलाफलकों का उपयोग हुआ। कहीं-कहीं काष्ठ-पट्टिका और भित्ति लेख भी लिखे गये पर उनका स्थायित्व अल्प होने से उल्लेख योग्य नहीं रहा। दान-पत्रादि के लिये ताम्र धातु का उपयोग प्रचुरता से होता था, पर ग्रन्थों के लिए ताडपत्र, भोजपत्र और कागज का उपयोग अधिक हया । यों काष्ठ के पतले फलक एवं लाक्षा के लेप द्वारा निर्मित फलकों पर लिखे ग्रन्थ भी मिलते है जिनका सम्बन्ध ब्रह्म देश से था । जैन ग्रन्थ लिखने में पहले ताडपत्र और बाद में कागज का उपयोग प्रचुरता से होने लगा। ग्रन्थ लेखन में वस्त्रों का उपयोग भी कभी-कभी होता था, परन्तु पत्राकार तो पाटण भण्डारस्थ सं. 1410 की धर्म विधि आदि की प्रति के अलावा टिप्पणाकार एवं चित्रपट आदि में प्रचुर परिमाण में उसका उपयोग होना पाया जाता है। हमारे संग्रह में ऐसे कई ग्रन्थादि हैं। ताडपत्र और वस्त्र पर ग्रन्थ लेखन का उल्लेख अनुयोग चूणि तथा टीका
पुस्तक लेखन के साधन :
जैनागम यद्यपि गणधर व पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचित हैं। इनका लेखनकाल विक्रम सं.500निर्णीत है। उपांग सुत्न राजप्रश्नीय में देवताओं के पढने के सत्र का जो वर्णन पाता है व समृद्धि पूर्ण होते हुए भी तत्कालीन लेखन सामग्री और ग्रन्थ के प्रारूप का सुन्दर प्रतिनिधित्व करता है। इस सूत्र में लिखा है कि पुस्तक-रत्न के सभी साधन स्वर्ण और रत्नमय होते हैं। यतः
'तस्स णं पोत्थ रयणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तं जहा रयणमयाइ पत्तगाई, रिटामई कंबियाओ, तवणिज्जमए दोरे, नाणामणिमए गंठी, वेरुलिय-मणिमए लिप्पासणे, रिटामए छंदणे, तवणिज्जमई संकला, रिट्ठामई मसी, वइरामई लेहणी, रिट्ठामयाई अक्खराइं, घम्मिए सत्थे ।' (पृष्ठ 96)
प्रस्तुत उल्लेख में लेखन कला से सम्बन्धित पत्र, कांबिका, डोरा, ग्रन्थि-गांठ, लिप्यासनदवात. छंदणय(ढक्कन), सांकल, मषी-स्याही और लेखनी साधन हैं। ये-1-जिस रूप में ग्रन्थ लिखे जाते थे, 2-लिखने के लिए जो उपादान होता, 3-जिस स्याही का उपयोग होता और, -लिखित ग्रन्थों को कैसे रखा जाता था, इन बातों का विवरण है।