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________________ भूमिका धर्म, साहित्य और संस्कृति : धर्म और साहित्य दोनों संस्कृति के प्रमुख अंग हैं। संस्कृति जन का मस्तिष्क है, धर्म जन का हृदय और धर्म की रसात्मक अनुभूति है साहित्य। जब-जब संस्कृति ने कठोर रूप धारण किया, हिंसा का पथ अपनाया, अपने रूप को भयावह व विकृत बनाने का प्रयत्न किया, तब-तब धर्म ने उसे हृदय का प्यार लुटा कर कोमल बनाया,अहिंसा और करुणा की बरसात कर उसके रक्तानजित पथ को स्नेहपरित और अमृतमय बनाया,संयम, तप और सदाचार से उसके जीवन को सौन्दर्य और शक्ति का वरदान दिया। मनुष्य की मूल समस्या है-आनन्द की खोज । यह प्रानन्द तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि मनुष्य भय-मुक्त न हो,पातंक-मुक्त न हो। इस भयमुक्ति के लिये दो शर्ते अावश्यक हैं। प्रथम तो यह कि मनुष्य अपने जीवन को इतना शीलवान, सदाचारी और निर्मल बनाए कि कोई उससे न डरे। द्वितीय यह कि वह अपने में इतना पुरुषार्थ, सामर्थ्य और बल संचित करे कि कोई उसे डरा-धमका न सके। प्रथम शर्त को धर्म पूर्ण करता है और दूसरी को संस्कृति। साहित्य इन्हें संवेदना के स्तर पर कलापूर्ण बनाता है। जैन धर्म और मानव संस्कृति : जैन मान्यता के अनुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में वर्तमान अवसर्पिणी के प्रथम तीनों कालों में जीवन अत्यन्त सरल एवं प्राकृतिक था। तथाकथित कल्पवृक्षों से आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाया करती थी। यह अकर्म भूमि, भोग-भूमि का काल था। पर तीसरे काल के अन्तिम पाद में काल चक्र के प्रभाव से इस अवस्था में परिवर्तन आया और मनुष्य कर्मभूमि की ओर अग्रसर हया। उसमें मानव सम्बन्धपरकता का भाव जगा और पारिवारिक व्यवस्थाकुल व्यवस्था-सामने आई। इसके व्यवस्थापक कुलकर या मनु कहलाये जो विकास-क्रम में वौदह हुए। कुलकर व्यवस्था का विकास आगे चलकर समाज संगठन, धर्मसंगठन के रूप में. इया और इसके प्रमुख नेता 24 तीर्थकर तथा गौण नेता 39 अन्य महापुरुष (12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव) हुए जो सब मिलकर त्रिषष्टि शलाका पुरुष कहे जाते हैं। उपर्युक्त पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि जैन दृष्टि से धर्म केवल वैयक्तिक आचरण ही नहीं है, वह सामाजिक आवश्यकता और समाज-कल्याण व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण घटक भी है। जहां वैयक्तिक आचरण को पवित्र और मनुष्य की आंतरिक शक्ति को जागृत करने की दृष्टि से मा, मार्दव, आर्जव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे मनोभावाधारित धर्मों की व्यवस्था है वहां सामाजिक चेतना को विकसित और सामाजिक संगठन को सुदृढ तथा स्वस्थ बनाने की दृष्टि से ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, कुल धर्म, गण धर्म, संघ धर्म जैसे समाजोन्मुखी धर्मों तथा ग्राम प्थविर, नगर स्थविर, प्रशास्ता स्थविर, कुल स्थविर, गण स्थविर, संघ स्थविर जैसे धर्मनायकों की भी व्यवस्था की गई है। इस बिन्दु पर आकर “जन” और “समाज" परस्पर जुड़ते हैं और धर्म में निवृत्ति-प्रवृत्ति, त्याग-सेवा और ज्ञान-क्रिया का समावेश होता है। संस्कृति का परिष्कार और भगवान महावीर : अन्तिम तीर्थकर महावीर तक आते-आते इस संस्कृति में कई परिवर्तन हुए। संस्कृति के विशाल सागर में विभिन्न विचारधाराओं का संगम हया। पर महावीर के समय इस
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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