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मुनि सोहनलालजी मुनि नथमल जी मुनि छत्रमल जी
भगवत् स्तुति तुलसी-स्तोत्रम् देवगुरु द्वात्रिशिका भिक्ष द्वात्रिशिका तुलसी द्वात्रिंशिका तुलसी स्तोत्रम् घ. तुलसी स्तोत्रम् श्री तुलसी स्तोत्रम् नेमिनाथ नूति :
मुनि दुलीचन्द जी 'दिनकर' मुनि बुद्धमल्ल जी मुनि पूनमचन्द जी मुनि मोहनलाल जी 'सार्दूल'
नीति काव्य:
जैन परम्परा में नीति काव्यों के प्रणेता भर्तृहरि माने जाते है । उनके द्वारा प्रणीत मीति-शतक और वराग्य-शतक चाणक्य-नीति की समकक्षता को प्राप्त करने वाले काव्य हैं ।
तेरापंथ में काव्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ नीति काव्य की परम्परा भी सतत वर्धमान रही है । पंचसूत्रम्, शिक्षा षण्णवति, कर्तव्य षट्त्रिंशिका, उपदेशामृतम्, प्रास्ताविक लोक शतकम् आदि अनेक काव्य ग्रन्थ इस परम्परा के विकास के हेतु हैं ।
पंचसूत्रम्:-आचार्य श्री तुलसी की एक विशिष्ट देन है। आज के स्वतंत्र मानस में परतन्त्रता के प्रति इतनी तीव्र प्रतिक्रिया है कि वह व्यवस्था भंग के लिये उत्सुक ही नहीं अपितु अतर हो रहा है । प्रश्न होता है कि क्या समाज अनुशासन का अतिक्रमण करके अपने अस्तित्व का सरक्षित रख सकता है ? इसका उत्तर आचार्य श्री ने अहिसा की भाषा में दिया है। धाचार्य श्री सामूहिक जीवन में अनुशासन और व्यवस्था को आवश्यक मानते हैं । आचार्य श्री के विचारों में अनुशासन जीवन की गति का अवरोधक नही किन्तु प्रेरक है। इसी आशय से उन्होंने लिखा है :
पंगतांन नयत्यष, हरतालम्ब सूजन्नपि ।
गति सम्प्रेरयत्येव, गच्छेयुस्ते निजत्रमैः॥ शिक्षा षण्णवति :- आचार्य श्री तुलसी का विभिन्न विषयों का स्पर्श करने वाला एक नीतिकाव्य है। इसकी मौलिक विशेषता यह है कि इसकी श्लोक रचना मानतुगाचार्य के भवतामर स्तोत्र की पादपूर्ति के रूप में हई है। शैक्ष विद्यार्थियों के लिये इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है । इसके पारायण से श्लोक रचना, पादपूर्ति, विषय निरूपण' आदि का सम्यग बोध होता है। इसमें पदपूर्ति के साथ भाव-सामंजस्य का निर्वहन भी बहुत सुचारु रूप से हुआ है। स्तुत कृति में विरवित का विश्लेषण करते हुए कहा है :
दावानलं ज्वलितमज्जवलमत्स्फलिंग, कः कोत्र भोः प्रशमन प्रच रेन्धनेन । आभ्यन्तरो विषयभोगविज़म्भिदाहस्त्वन्तविरागसलिलैः ।
इसकी रचना वि. सं. 2005 में छापर (राजस्थान) म हुई। इसके कुल 20 प्रकरण इसका हिन्दी अनुवाद मुनि बुद्धमल्ल जी द्वारा किया गया है।