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________________ 280 मये। तिसनै करी सलोक बंध। तिसकी भाषा खरतरगछ माही जनि वाचक पदवी धारक दीप इसे नामें । 32. अमरविजय ये खरतरगच्छीय उदयतिलक के शिष्य थे। इनकी 'अक्षर-बत्तीसी हिन्दी रचना प्राप्त है। राजस्थानी में तो इनकी अनेकों रचनायें प्राप्त हैं। 33. रघुपति ये खरतरगच्छीय विद्यानिधान के शिष्य थे। सूकवि थे। सं. 1787 से 1839 तक की इनकी रचनायें मिलती हैं। इनकी अधिकांश रचनायें राजस्थानी में हैं। हिन्दी में "जैनसार बावनी" और "भोजन विधि" नाम की रचनायें प्राप्त हैं। भोजन विधि में तो भगवान् महावीर के जन्म समय के दशोटन का वर्णन है। जैनसार बावनी प्रौपदेशिक मातृकाक्षरों पर रचित सुन्दर रचना है। इसमें 58 पद्य हैं। सं. 1802 नापासर में इसकी रचना हुई है। इसका प्रारम्भिक पद्य इस प्रकार है : ऊंकार बड़ी सब अक्षर में, इण अक्षर ओपम और नहीं। ऊंकारनि के गुण पादरि के, दिल उज्ज्वल राखत जांण दही। ऊंकार उचार बड़े बड़े पंडित, होति है मानित लोक यही। ऊंकार सदामद ध्यावत है, सुख पावत है रुघनाथ सही । 1। 34. विनयभक्ति ये खरतर गच्छीय वाचक भक्तिभद्र के शिष्य थे। इनका प्रसिद्ध नाम वस्ता था। इनकी पहली हिन्दी रचना "जिनलाभसूरि दवावत” है। जिनलाभसूरि का प्राचार्यकाल सं. 1804 से 1834 तक का है, अत: इसी बीच इसकी रचना हुई है। इसकी गद्य वचनिका का कुछ अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत है : ___ऐसी पद्मावती माई बड़े बड़े सिद्ध साधकुं ने ध्याई। तारा के रूप बौद्ध सासन समाई । गौरी के रूप सिद मत वालुनै गाई। जगत में कहानी हिमाचल की जाई। जाकी संगती काह सो लखी न जाई। कौसिक मत में वजा कहानी। सिवजू की पटरानी। सिव ही के देह में समानी। गाहनी के रूप चतुरानन मुखपंकज बसी । मच्छर के रूप चंद विद्या में विकसी।" इनकी दूसरी रचना 'अन्योक्ति-बावनी' महत्वपूर्ण है। इसमें 62 पद्य हैं। जैसलमेर के रावल मलराज के कथन से सं. 1822 में इसका प्रारम्भ हुअा था। अभय जैन ग्रन्थालय में इसकी प्रति सुरक्षित है। 35. क्षमाकल्याण ये खरतरगच्छीय वाचक अमृतधर्म के शिष्य थे। अपने समय के बहत बडे विद्वान और ग्रन्थकार थे। सं. 1826 से 1873 तक की इनकी अनेकों रचनायें प्राप्त हैं। इन्होंने सुदूर बंगाल मुर्शिदाबाद आदि में भी विहार किया था। अतः इनकी कई रचनाभों में हिन्दी का प्रभाव है ही। वैसे “हितशिक्षा द्वात्रिंशिका" प्रापकी सुन्दर व प्रौपदेशिक रचना है। इसका प्रारंभिक पद्य इस प्रकार है : सकल विमल गुन कलित ललित मन, मदन महिम वन दहन दहन सम । ममित सुमति पति दलित दुरित मति, निशित विरति रति रमन दमन दम। सघन विधन गन हरन मधुर धुनि, धरन धरनि नल अमल असम सम । जयतु जगति पति ऋषभ ऋषभ गति, कनक वरन दुति परम परम मम ।11,
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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