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________________ 219 लिये इस रचना का नाम 'आनन्दभूषण' या 'मानन्द-प्रमोद' रखा गया है। इस रचना के गब वार्ता का कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है :-- "उज्जैणी नगरी के विष राजा भतृहरिजी राज करतु है, ताहि एक समै एक महापुरुष योगीश्वरं एक महागुणवंत फल भेंट कीनी। फल की महिमा कही जो यह खाय सो अजर अमर होई। तब राना ये स्वकीय राणी पिंगला कुं भेज्या। तब राणी अत्यन्त कामातुर अन्य पर-पुरुषतें रक्त है, ताहि पुरुष को, फल दे भेजो अरु महिमा कही।" 29. देवचन्द्र ये खरतरगच्छीय दीपचन्दजी के शिष्य थे। बीकानेर के निकटवर्ती ग्राम में ही आपका जन्म हपा था। छोटी उम्र में ही सं. 1759 में ये दीक्षित हुए थे। इनका दीक्षा नाम 'राजविमल' था। जैन तत्ववेत्ता के रूप में आप बहुत प्रसिद्ध हैं। प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी, गजराती के अतिरिक्त हिन्दी में आपने कुछ पद और "द्रव्यप्रकाश" नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया है। जैन धर्म मान्य जीव अजीवादि द्रव्यों के सम्बन्ध में यह ग्रन्थ प्रकाश डालता है। सं. 1763 में बीकानेर में इसकी रचना हुई है। द्रव्यप्रकाश का एक पद्य प्रस्तुत है: सहज सुभाव प्रथ गुरु के वचन सेती, जान्यो निज तत्व तब जाग्यो जीव राय है। मैं तो परद्रव्य नांहि परद्रव्य मेरो नांहि, ऐसी बुद्धि भासी तब बंध कैसे थाय है। देखि जांनि गहो तुम परम अनंत पद, जाकै पदमाग और पद न सुहाय है। प्रमाण निखेप नय जाक तेज आग मस्त, ___ ऐसी निज देव श द मोख को उपाय है। 30। 30. रूपचन्द (रामविजय) ये खरतरगच्छीय उपाध्याय दयासिंह के शिष्य थे। इनका दीक्षा नाम रामविजय था। इन्होंने 101 वर्ष की दीर्घाय पाई और कई रचनाय की है। संवतोल्लेख वाली इनकी पहली रचना सं. 1772 की 'जिनसुखसूरि मजलस' खड़ी बोली की है। दूसरी रचना लघस्तव टब्बा सं. 1798 की है। राजस्थानी की तो कई रचनायें हैं पर हिन्दी की दृष्टि से अन्य रचनाओं का अवलोकन आवश्यक है। जिनसुखसूरि मजलस बड़ी अनूठी एवं मजेदार रचना है। उदाहरण प्रस्तुत है: "अहो आवो बे यार, बैठो दरबार, ए चांदरणी रात, कहो मजलस की बात । कहो कुन कुन मुलक कुन कुन राजा देखै, कुन कुन बादसाह देखे, कुन कुन दीवान देखे, कुन कुन महिर्वान देखै ? तो कहेक-दिल्ली दईवान फररक साह सुलतान देखे, चितोड़ संग्रामसिंह दीवान देख,जोधाण राठोड़ राजा अजीतसिंह देख, बीकाण राजा सुजांणसिंह देख, प्रांवर कछवाहू राजा जैसिंघ देखे ।" 31. बीपचन्द ये खरतरगच्छीय थे। इनका प्रणीत "लंघनपथ्यनिर्णय" नामक संस्कृत वैद्यक ग्रन्थ सं.1792 जयपुर में रचित प्राप्त है। हिन्दी भाषा में इन्होंने "बालतन्त्र की भाषा वचनिका" बनाई । इसका कुछ उद्धरण प्रस्तुत है :-- तिसके पत्र कल्याणदास नामा होत भये। महा पण्डित सर्वशास्त्र के वक्ता जाणणहार वैद्यक चिकित्सा विषे महाप्रवीण सर्वशास्त्र वैद्यक का देखकर परोपकार के निमित्त पंडितां का ग्यान के वासत यह बाल चिकित्सा ग्रन्थ करण वास्ते कल्याणदास नामा पंडित होत
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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