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________________ 281 अपभ्रंश भाषा के सुप्रसिद्ध जयतिहुप्रण स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद मुर्शिदाबाद के कातेला गजरमल और तनसुखराय के लिये बनाया था। इसकी प्रति अभय जैन प्रन्थालय में प्राप्त है। इनका 'अंबड चरित्र' सं. 185 3 में रचित महिमाभक्ति भण्डार में प्राप्त है । 36. शिवचन्द्र इनका पूर्वनाम शंभु राम था। ये खरतरगच्छ के पुण्यशील के प्रशिष्य और समयसुन्दर के शिष्य थे। संस्कृत और राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त इन्होंने हिन्दी म जैसलमेर के रावल मूलराज की प्रशंसा में “समुद्रबद्ध काव्य वचनिका' की सं. 1851 जैसलमेर में रचना की है। इसके एक दोहा और वचनिका का उदाहरण प्रस्तुत है :-- "शुभाकार कौशिक त्रिदिव, अंतरिच्छ दिनकार । महाराज इन धर तपौ, मूलराज छत्रधार । अरुण अर्थलेश-जैसे शुभाकार कहि है भलो है प्राकार जिनको ऐसे, कौशिक कहिये इन्द्र सों त्रिदिव कहिये स्वर्ग में प्रतपै दनकार अंतरिच्छ कहतां जितने ताई सूर्य आकाश में तपै। महाराज कहतां इन रीते छत्र के धरनहार महाराज श्री मूलराज। धर तपौ कहिये पृथ्वी विषै प्रतापी ।" शिवचन्द्रजी की हिन्दी कृतियों में दो पूजायें भी प्राप्त हैं :---1. ऋषि मण्डल पूजा सं. 1879 और 2. नंदीश्वर द्वीप पूजा । 37. कल्याण कवि इन्होंने सं. 1822 में "जैसलमेर गजल" सं. 1838 में "गिरनार गजल" और 1864 में "सिद्धाचल गजल" ये तीनों नगर वर्णनात्मक गजलें बनाई हैं। ये भी खरतरगच्छ के थे। 38. ज्ञानसार ये खरतरगच्छीय रत्नराज गणि के शिष्य एवं मस्तयोगी तथा राजमान्य विद्वान् थे। कवि होने के साथ-साथ ये सफल पालोचक भी थे। इनकी समस्त लघुकृतियां "ज्ञानसार ग्रन्थावली" के नाम से प्रकाशित हो चुकी हैं। राजस्थानी के अतिरिक्त इनकी निम्नांकित हिन्दी रचनायें प्राप्त है :-- 1. पूर्वदेश वर्णन, कामोद्दीपन, सं. 1856 जयपुर के महाराजा प्रतापसिंहजी की प्रशंसा में रचित मालापिंगल (छंदशास्त्र) सं. 1876, 8. चारित्र छत्तीसी, 4. चन्द चौपाई समालोचना दोहा, 9. आत्म प्रबोध छत्तीसी, प्रास्ताविक अष्टोत्तरी, मति प्रबोध छत्तीसी 6. निहाल बावनी सं. 1881, 11. बहुतरी आदि के पद । 7. भावछत्तीसी सं. 1865, इन्होंने 98 वर्ष की दीर्घायु पाई और श्मशानों में रहते हुए योग और अध्यात्म की साधना की। 'पूर्वदेश वर्णन' में जब ये मुर्शिदाबाद चौमासा करने के लिये गये थे, तब वहां बंगाल की उस समय जो स्थिति देखी थी उसका चित्रात्मक वर्णन किया है। पर्वदेश से वापिस आने पर ये जयपुर में कई वर्ष रहे और वहां के महाराजा प्रतापसिंह की प्रशंसा में “कामोददीपन' ग्रन्थ बनाया। "माला पिंगल" इनकी छंदशास्त्र की महत्वपूर्ण रचना है। श्रीमद् आनन्दधनजी की रचनाओं का इन्होंने 30 वर्षों तक चिन्तन करके उनके चौवीसी और पदों पर विवेचन लिखा। 10
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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