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________________ उद्योतनसूरि उद्योतन सूरि श्वेताम्बर परम्पराक एक विशिष्ट मेधावी सन्त थे। उनका जीवनवृत्त विस्तार से नहीं मिलता। उन्होंने वीरभद्रसूरि से सिद्धान्त की शिक्षा प्राप्त की थी और हरिभद्रसूरि से युक्तिशास्त्र की। कुवलयमाला प्राकृत साहित्य का उनका एक अनुपम ग्रन्थ है। गद्यपद्य मिश्रित महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रसाद-पूर्ण रचना चम्पू शैली में लिखी गई है। महाराष्ट्री प्राकृत के साथ इसमें पंशाची, अपभ्रश व देशी भाषाओं के साथ कहीं-कहीं पर संस्कृत भाषा का भी प्रयोग हया है। प्रेम और श्रगार के साथ वैराग्य का भी सुन्दर प्रयोग हा है। सुभाषित. मार्मिक प्रश्नोत्तर,प्रहेलिका आदि भी यत्र-तत्र दिखलाई देती हैं जिससे लेखक के विशाल अध्ययन व सूक्ष्म दृष्टि का पता लगता है। ग्रन्थ पर बाण की कादम्बरी, त्रिविक्रम की दमयन्ती कथा, और हरिभद्रसूरि के समराइच्च कहा का स्पष्ट प्रभाव है। प्रस्तुत ग्रन्थ ईस्वी सन् 779 में जाबालिपुर जिसका वर्तमान में नाम जालौर है, में पूर्ण किया गया था । जिन श्वरसूरि जिन श्वरसूरि के नाम से जन-सम्प्रदाय में अनेक आचार्य हुए है। प्रस्तुत आचार्य का उल्लेख धनेश्वरसूरि , अभयदेव' और गुणचन्द्र ने युगप्रधान के रूप में किया है। जिनेश्वरसूरि का मुख्य रूप से विहार स्थल राजस्थान, मालवा और गजरात रहा है। इन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में रचना की। उसमें हरिभद्र कृत अष्टक पर वृत्ति, पलिंगी प्रकरण, वोरचरित्र, निर्वाण-लीलावती कथा, षट्-स्थानक प्रकरण, और कहाणय-कोस मुख्य हैं। कहाणय कोस में तीस गाथायें हैं और प्राकृत में टीका है, जिसमें छत्तीस प्रमुख कथाएं है। कथाओं में उस युग की समाज, राजनीति और आचार-विचार का सरस चित्रण किया गया है। समास युक्त पदावली, अनावश्यक शब्दाडम्बर और अलंकारों की भरमार नहीं है। कहीं-कहीं पर अपभ्रंश भाषा का भी प्रयोग हुआ है। उनकी निर्वाण लीलावती कथा भी प्राकृत भाषा की श्रेष्ठ रचना है। उन्होंने यह कथा सं. 1082 और सं. 1095 के मध्य में बनाई है। पदलालित्य, श्लेष और अलंकारों से यह विभूषित है। प्रस्तुत ग्रन्थ का जिनरत्नसूरि रचित संस्कृत श्लोकबद्ध भाषान्तर जैसलमेर के भण्डार में उपलब्ध हुआ है । मूल कृति अभी तक अनुपलब्ध है । प्राकृत भाषा में उनकी एक अन्य रचना 'गाथा कोस' भी मिलती है। 1. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन, बम्बई वि. सं. 2005 सं. मुनि विजय जी। 2. तुंगमलंघ जिण-भवण-महाहरं सावयाउल विसमं । जावालिउरं अठ्ठावयं व अह अत्थि पुहईए। कवलयमाला प्रशस्ति पृष्ठ 282 प्रकाशक-सिंधी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्याभ वन, बम्बई वि. सं. 2005 स. मुनि जिनविजय जी । 3. सुरसुन्दरी चरित्न की अंतिम प्रशस्ति गा. 240 से 248 4. भगवती, ज्ञाता, समवायांग, स्थानांग औपपातिक की वृतियों में प्रशस्तियां 5. महावीर चरित्र प्रशस्ति ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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