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________________ सौं मिलता है। एक बार चित्तौड़ के मार्ग से जा रहेथं उनके कर्ण-कुहरों में एक गाथा 1 गाथा प्राकृत-भाषा की थी, संक्षिप्त और सकत-पूर्ण अर्थ लिए हुए थी अतः उसका मर्म उनकी समझ में नहीं आया। उनने गाथा का पाठ करने वाली साध्वी से उस गाथा के अर्थ को जानने की जिज्ञासा व्यक्त की। साध्वी ने अपने गुरु जिनदत्त का परिचय कराया। प्राकृत साहित्य का और जैन-परम्परा का प्रामाणिक व गम्भीर अभ्यास करन के लिये उन्होंन प्राचार्य के पास जैनेन्द्रीदीक्षा ग्रहण की और उस साध्वी के प्रति अपने हृदय का अनन्त श्रद्धा को उसका धर्मपत अपनेप्रापको बताकर व्यक्त की है। वे गृहस्थाश्रम में संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। श्रमण बनने पर प्राकृत भाषा का भी गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने दशर्वकालिक,आवश्यक नदी प्रनयोगटार. पन्नवणा, अधिनियं क्ति, चैत्यवन्दन, जम्बुद्वीप-प्रज्ञप्ति. जीवाभिगमन नियंक्ति प्रादि आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखीं। आगम साहित्य के प्रथम टीकाकार उन्होंने प्राकृत भाषा में विपुल साहित्य का सृजन किया है। संस्कृत भाषा के समान उनका प्राकृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार था। उन्होंने धर्म, दर्शन, योग तथा ज्योतिष और स्तुति प्रजाति सभी विषयों में प्राकृत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं। जैसे उपदेश पद, पंचवस्त. पंचाशक. बीस SAME IS-धर्म-विधि प्रकरण, सम्बोध प्रकरण, धर्मसंग्रहणी, योग विशिका, योगशतक, धूर्ताख्यान, समराइच्च कहा, लग्नशुद्धि, लग्न कुण्डलियां आदि । समराहच्चकहा, प्राकृत भाषा की एक सर्वश्रेष्ठ कृति है। जो स्थान संस्कृत साहित्य में कादम्बरी का है बही स्थान प्राकृत साहित्य में समराइच्चकहा का है। यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई है, अनेक स्थलों पर शौरसेनी भाषा का भी प्रभाव है। वृत्तक्खाण' हरिभद्र की दूसरी उल्लेखनीय रचना है। निशीथ चणि की पीठिका में धर्ताख्यान की कथाएं संक्षेप में मिलती हैं। जिनदासगणि महत्तर ने वहां यह सूचित किया है कि विशेष जिज्ञासु धुताक्खान देखें। इससे यह स्पष्ट है कि जिनदासगणि के सामने धूताक्खाण की कोई प्राचीन रचना रही होगी जो अाज अनुपलब्ध है। प्राचार्य हरिभद्र ने निशीयचूणि के आधार से प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में पुराणां में वर्णित अतिरंजित कथानों पर करारे व्यंग करते हए उसकी सार्थकता सिद्ध की है। भारतीय कथा-साहित्य में शैली की दष्टि से प्रस्तुत कथा का मूर्धन्य स्थान है। लाक्षणिक शैली में इस प्रकार की अन्य कोई भी रचना उपलब्ध नहीं होती। यह साधिकार कहा जा सकता है, व्यंगोपहास की इतनी श्रेष्ठ र वना अन्य किसी भी भाषा में नहीं है। धूर्तों का व्यंग प्रहार ध्वंसात्मक नहीं अपितु निर्माणात्मक है। कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रन्थों को रचना की थी किन्तु वे सभी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। डा. हर्मन जैकोबी, लायमान विन्तनित्स, प्रो. सुवाली ओर शब्रिग प्रभति अनेक पाश्चात्य विचारकों ने हरिभद्र के ग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद भी किया है। और उनके सम्बन्ध में प्रकाश भी डाला है जिससे भी उनकी महानता का सहज ही पता लग सकता है। 1. चक्किदुंग हरि-पणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की, केसव दुचक्की _केसी अचक्की अ॥ आवश्यक निर्य क्त गाथा 4211 2. धमतो याकिनीमहत्तरासूनुः । 3. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, भारतीय विद्या भवन बम्बई से प्रकाशित । .. देखिय, डा. हर्मन जैकोबी ने समराइच्च कहा का सम्पादन किया। सुवाली ने योगदृष्टि समुच्चय, योग बिन्दु, लोकतत्वनिर्णय एवं षड्दर्शन समुच्चय का सम्पादन किया पौर लोकतत्व निर्णय का इटालियन में अनुवाद भी।।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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