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6. निसि सत्तमी वय कथा (निर्दोष सप्तमी ब्रत कथा) 7. णिज्झर पंचमी कहा (निर्झर पंचमी कथा) 8. अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) 9. दुद्धारमि कहा (दुग्ध द्वादशी कथा)
उक्त सभी कृतियों में लघु-कथाएं हैं। भाषा अत्यधिक सरल किन्तु प्रवाहमय है। सभी कथाओं में अपनी पूर्ववर्ती गुरु परम्परा का उल्लेख किया है तथा कथा-समाप्ति की पंक्ति में अपने आपको नरेन्द्रकीति का शिष्य लिखा है ।
8. तेजपाल:
तेजपाल राजस्थानी विद्वान थे। अपभ्रंश भाषा में काव्य-निबद्ध करने की ओर इनकी विशेष रुचि थी। ये मूलसंघ के भट्टारक रत्नकोति, भुवनकीर्ति, धर्मकीर्ति और विशालकीर्ति कीआम्नाय के थे। कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि 'वासनपुर' नामक गांव से बरसाबडह बंश में जाल्हड नामके एक साहू थे। उनके पुत्र का नाम सुजड साहू था। वे दयावंत एवं जिनधर्म में अनरक्त रहते थे। उनके चार पुत्र थे-रणमल, बल्लाल, ईसरू और पोल्हण । ये चारों ही भाई खण्डेलवाल जाति के भूषण थे। रणमल साहू के पुत्र ताल्हप के पुत्र साह हए और उनके तेजपाल हुए। इस प्रकार तेजपाल खण्डेलवाल जाति में उत्पन्न हुए थे और अपभ्रश के प्रच्छे कवि थे ।
तेजपाल की अब तक तीन कृतियां उपलब्ध हो चुकी है, जिनके नाम पासणाह चरिउ, संभवणाह चरिउ एवं वरांग चरिउ है ।
पासणाह चरिउ:
पार्श्वनाथ चरित्र एक खण्ड-काव्य है, जिसका रचनाकाल संवत 1515 कार्तिक कृष्णा पंचमी है। सारी रचना अपभ्रश के लाडला छन्द पद्धडिया में निर्मित है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ के जीवन का तीन संधियों में वर्णन किया गया है। इस काव्य को कवि ने पडवंशी साह शिवदास के पुत्र धूधलि साह की अनुमति से रचा था। कृति अभी तक अप्रकाशित है तथा इसकी एक पाण्डुलिपि अजमेर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है।
संभवणाह चरिउ:
इस काव्य में छह संधियां और 170 कडवक हैं। इसमें तीसरे तीर्थकर भगवान संभवनाथ का जीवन-चरित्र निबद्ध है। महापुराणों के अतिरिक्त संभवनाथ का जीवन बहत कम लिखा गया है, इसलिये कवि ने संभवनाथ पर काव्य रचना करके उल्लेखनीय कार्य किया है। इसकी रचना श्रीमन्त नगर में हुई थी तथा मित्तल गोत्रीय साहु लस्समदेव के चतुर्थ पुत्र थील्हा के अनरोध पर लिखी गई थी। रचना सुरुचिपूर्ण एवं अत्यन्त सुन्दर भाषा में निबद्ध है। इसका रचनाकाल संवत् 1500 के आस-पास का है। रचना अभी तक अप्रकाशित है।
वरांग चरिउ:
यह कविवर तेजपाल की तीसरी कृति है। इसमें चार संधियां हैं जिनमें राजा वरांग का जीवन निबद्ध है। इसका रचनाकाल संवत् 1507 की वैशाख शुक्ला सप्तमी है। रचना सरल एवं सरस है तथा हिन्दी के विकास पर प्रकाश डालने वाली हैं। यह कृति भी अभी तक अप्रकाशित है।