________________
181
उक्त कवियों के अतिरिक्त अपभ्रश के अन्य कवियों का भी राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा है । ऐसे कवियों में जम्बूसामि चरिउ के रचयिता महाकवि वीर, पासणाह चरिउ, सुकुमाल परिउ एवं भविसयत्त चरिउ के रचयिता श्रीधर, महाकवि यशःकीर्ति, माणिक्यराज, भगवतीदास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
जिनदत्तसूरि:--
जिनदत्तसूरि राजस्थानी सन्त थे। धन्धका के रहने वाले वाछिग मन्त्री की पत्नी देल्हणदे की कोख से आपका संवत् 1132 में जन्म हुआ। बाल्यकाल में ही 9 वर्ष की आय में आपने दीक्षा ग्रहण करली। आपका जन्म नाम सोमचन्द्र था। चित्तौड़ के वीर जिनालय में जिनवल्लभसरि के मरणोपरान्त आपको सरि पद प्राप्त हआ और आपका नाम जिनदत्तसरि रखा गया । मरुदेश, अजमेर, महाराष्ट्र एवं राजस्थान के अन्य प्रदेशों में आपने खूब विहार किया। मन्त्र शास्त्र के आप बड़े भारी साधक थे। जब से जिनदत्तसूरि ने पाटण नगर में अंबड के हाथ पर वासक्षेप का प्रक्षेपन कर उन अक्षरों को पढ़ा तभी से आप युगप्रधान कहलाने लगे। आपने त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल एव सांभर नरेश अर्णोराज को प्रतिबोध दिया। आपकी मृत्यु 1211 में आषाढ़ शुक्ला 11 को अजमेर नगर में हई थी।।
अपभ्रंश-भाषा की अब तक आपकी तीन रचनाएं उपलब्ध हुई हैं जिनके नाम है, उपदेशरसायन रास, कालस्वरूप कुलक और चर्चरी। उपदेश रसायन रास में 80 गाथाओं का संग्रह है। मंगलाचरण के पश्चात् जिनदत्तसूरि ने मनुष्य जन्म के लिये आत्मोद्धार को आवश्यक बतलाया है। इसी रास में मन्दिरों में होने वाले तालरास एवं लगड रास का निषेध किया है। रास में पद्धटिका-पज्झटिका छन्द का प्रयोग हआ है। ओरियंटल इन्स्टीट्यूट, बडौदा से "अपम्रश काव्यत्रयी" में उक्त रचना प्रकाशित हो चुकी है।
कालस्वरूप कुलक:--
यह श्री जिनदत्तसूरि की लघुकृति है जिसमें केवल 32 पद्य है। इसका दूसरा नाम उपदेश-कुलक भी है।
मंगलाचरण के पश्चात जिनदत्तसूरिने 12 वीं शताब्दी में सामाजिक स्थिति का उल्लेख किया है जिसके अनुसार लोगों में धर्म के प्रति अनादर, मोहनिद्रा की प्रबलता और गरु वचनों के प्रति अरुचि प्रमख है। कवि ने सुगर और कुगर का भेद बतलाया है और कुगरु को धतूरे के फल से समान बतलाया है । साथ ही में सुगुरुवाणी और जिनवाणी में श्रद्धा का उपदेश दिया है। इस प्रकार कृति का विषय पूर्णतः धर्मोपदेश है। इसी प्रकार सुगुरु और कुगर बाहर से समान दिखते हैं किन्तु कुछ रु अभ्यन्त र व्याधिरु.१ है जो बुद्धिमान् दोनों में भेद करता है वह परम पद को प्राप्त होता है ।
चर्चरी:--
प्रस्तुत चचेरी में जिनदत्तसूरि ने 47 छन्दों में अपने गुरु जिनवल्लभसूरि का गुणानुवाद एवं चैत्य-विधि का विधान किया है । इस चर्चरो की रचना जिनदत्तसूरि ने बागड (राज.)
1. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ. 5।