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देशान्तर्गत व्याघ्रपुर नगर में विक्रम की 12वीं के उत्तराधं में की। कवि अपने सूरि को कालिदास एवं वाक्पतिराज से भी बढ़कर मानता है ।-
कालियासु कइ आसि जु लोइहि वन्नियइ । ताव जाव जिणवल्लहु कइ ना अन्नियइ || अप्पु चित्त परियाणहि तं पि विसुद्ध न य । ते वि चित्त कइराय मणिज्जहि मुवनय ॥
गुरु जिनबल्लभ
हरिभद्रसूरि :--
हरिभद्र नाम से दो प्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं । प्रथम हरिभद्रसूरि 8वीं शताब्दि में हुए जिनका चित्तौड़ से गहरा सम्बन्ध था । ये प्राकृत एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे और जिन्होंने सैकड़ों की संख्या में रचनाएं निबद्ध करके एक अभूतपूर्व कार्य किया था । दूसरे हरिभद्र जिने - चन्द्रसूरि के प्रशिष्य एवं श्रीचन्द्र के शिष्य थे । इनका सम्बन्ध गुजरात से अधिक था और वहीं चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज और कुमारपाल के अमात्य पृथ्वीपाल के आश्रय में रहते थे किन्तु राजस्थान से भी उनका विशेष सम्बन्ध था और उस प्रदेश में उनका बराबर बिहार होता रहता था ।
डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने हरिभद्र की दो अपभ्रंश कृतियों का उल्लेख किया है जिनके नाम सनत्कुमार चरित एवं णमिणाह चरिउ है । लेकिन डा. हरिवंश कोछड ने अपने 'अपभ्रंश साहित्य' पुस्तक में लिखा है कि नेमिनाथ चरित का एक अंश सनत्कुमार चरित के नाम से प्रकाशित हुआ है । नेमिनाथ चरित के 443 पद्य से 785 पद्य तक अर्थात् 343 रड्डा पद्यों में सनत्कुमार का चारत मिलता है । वैसे दोनों चरित काव्य कथानक की दृष्टि से स्वतन्त्र काव्य प्रतीत होते हैं ।
नेमिनाथ चरित में 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन पर आधारित काव्य निबद्ध किया गया है जबकि सनत्कुमार चरित, चक्रवर्ती सनत्कुमार के जीवन पर आधारित काव्य 1 काव्य में सनत्कुमार की विजय यात्रा, उनके अनेक विवाहों का वर्णन, उसके अमित तेज एवं सौन्दर्य का वर्णन एवं अन्त में भोगों से विरक्ति, तपस्या का वर्णन और अन्त में स्वर्ग प्राप्ति का वर्णन मिलता है । काव्य का कथानक अन्य चरित-काव्यों के समान वीर और श्रृंगार के वर्णनों से युक्त है लेकिन काव्य का पर्यवसान शान्त रूप में होता है ।
महेश्वरसूरि :--
महेश्वरसूरि राजस्थानी सन्त थे । इनके द्वारा रचित 'संयममंजरी' अपभ्रंश भाषा की घुकृति प्राप्त है । संयममंजरी में कवि ने संयम में रहने का उपदेश दिया है। उसने संयम के 17 प्रकारों का उल्लेख करते हुए कुकर्म त्याग और इन्द्रिय निग्रह का विधान किया है ।
उक्त अपभ्रंश कृतियों के अतिरिक्ति रास एवं फागु संज्ञक की कुछ रचनायें उपलब्ध | तो हैं जिनमें विजयसेन सूरि कृत रेवंतगिरिरास व देल्हण कृत नयसुकुमालरास, अंबदेव कृत मराराम, राजेश्वरसूरि कृत नेमिनाथरास, शालिभद्रसूरि कृत भरत बाहुबलि रास के उल्लेखनीय हैं ।
• अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां: डा. देवेन्द्रकुमार, पृ. 187 अपभ्रंश साहित्य डा. हरिवंश कोछड 295