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________________ 159 मयणजुजन:-- यह एक रूपक-काव्य है जिसमें भगवान ऋषभदेव द्वारा कामदेव पराजय का वर्णन है। यह एक आध्यात्मिक रूपक काव्य है जिसका मुख्य उद्देश्य मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना है। काम मोक्षरूपी लक्ष्मी प्राप्त करने में एक बडी बाधा है। मोह, माया, राग एवं द्वेष काम के मल्ल सहायक है। वसन्त काम का दत है जो काम की विजय के लिये पृष्ठभूमि बनाता है. लेकिन मानव अनन्त-शक्ति एवं ज्ञानवाला है, यदि वह चाहे तो सभी विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। भगवान ऋषभदेव भी अपने आत्मिक-गुणों द्वारा काम पर विजय प्राप्त करते है। कवि ने इसी रूपक को मयणजुज्झ में बहुत ही सुन्दर रीति से प्रस्तुत किया है। वसन्त कामदेव का दूत होने के कारण उसकी विजय के लिये पहिले जाकर अपने अनुरूप वातावरण बनाता है। वसन्त के आगमन का वृक्ष एवं लतायें तक नव पुष्पों से उसका स्वागत करती हैं। कोयल कुहु-कुहु की रट लगाकर एवं भ्रमर-पंक्ति गुजार करती हई उसके आगमन की सचना देती है। यवतियां अपने आपको सज्जित करके भ्रमण करती हैं। इसी वर्णन को कवि के शब्दों में पढिये: बज्जत नीसाण वसंत आयउ, छल्ल कंद सिखिल्लिय। सुगंध मलया पवण झुल्लिय, अंब कोइल्ल कूल्लियं । रुण झणिय केवइ कलिय महवर, सुतर पत्तिह छाइयं । गावंति गीय वजंति वीणा, तरुणि पाइक पाइयं ।।। मयणजज्झ को कवि ने संवत् 1589 में समाप्त किया था जिसका उल्लेख कवि ने रचना के अन्तिम छन्द में किया है। इस कृति की पाण्डुलिपियां राजस्थान के कितने ही शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध होती है। 7. ब्रह्म साधारण: ब्रह्म साधारण राजस्थानी सन्त थे। पहिले वे पंडित साधारण के नाम से प्रसिद्ध थे। किन्तु बाद में ब्रह्मचारी बनने के कारण उन्हें ब्रह्म साधारण कहा जाने लगा। उन्होंने अपनी पूर्ववर्तीगरु-परम्परा में भ. रतनकीति, म. प्रभाचन्द्र, भ. पद्मनन्दि, हरिभषण, नरेन्द्रकीर्ति, एवं विद्यानन्दि का उल्लेख किया है और अपने आपको म. नरेन्द्रकीर्ति का शिष्य लिखा है। म. नरेन्टकीति का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध था और वे इसी प्रदेश में विहार किया करो संवत 1577 की एक प्रशस्ति में प.साधारण का उल्लेख मिला है जिसके अनसार इन्हें पंचास्तिकाप की एक पाण्डुलिपि सा. धौपाल द्वारा मेंट की गई थी। ब्रह्म साधारण अपभ्रश भाषा के विद्वान् थे। छोटी-छोटी कथाओं की रचना करके वे भावकों को स्वाध्याय की प्रेरणा दिया करते थे। 15 वीं 16 वीं शताब्दी में भी अपम्रश भाषा की रचनाओं का निबद्ध करना उनके अपने श-प्रेम का द्योतक है। अब तक उनकी 9 रचनायें उपलब्ध हो चुकी हैं: 1. कोइलपंचमी कहा (कोकिला पंचमी कथा) 2. मउड सप्तमी कहा (मुकूट सप्तमी कथा) 3. रविवय कहा (रविव्रत कथा) 4. f तयालचउवीसी कहा (त्रिकाल चउवीस कथा) 5. कुसुमंजलि कहा (पुष्पांजली कथा) 1. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थसूची, पंचम भाग, 1.72
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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