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________________ 158 पज्जुण्णचरिउ:-- पज्जण्णचरिउ अथवा प्रद्यम्नचरित 15 सधियों का अपभ्रश काव्य है जिसमें श्रीकृष्ण जी के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन-चरित निबद्ध किया गया है। जैन धर्म में प्रद्युम्न को पुण्य पुरुषों में माना गया है। रुक्मिणी से उत्पन्न होते ही प्रद्यम्न का हरण एक राक्षस द्वारा कर लिया जाता है। प्रद्युम्न वहीं बडे होते हैं और फिर 12 वर्ष पश्चात श्रीकृष्ण जी से आकर मिलत है। प्रद्युम्न चरित्र में सभी वर्णन बड़े सून्दर हए हैं तथा ग्राम, नगर, ऋतू, सरोवर, उपवन, पर्वत आदि के वर्णन के साथ ही पात्रों की भावनाओं का भी अंकन किया गया है। काव्य में करुणरस का भी अपूर्व चित्रण हुआ है तथा बालक्रीडाओं के वर्णन में कवि ने अपनी काव्य चतुरता दिखलाई है। इसी तरह का एक वर्णन देखिये:-- चाणउर विमद्दणु देवई णंदणु, संख चक्क सारंगधरु । रणि कंस खयंकरु, असुर भयंकरु, वसुह तिखंडह गहियकरु । 1:12 रजो दाणव माणव दलइ दप्प जिणि गहिउ असुर णर खयर कप्पु । णव णव जोव्वण सुमणोहराई. चक्कल घण पीण पउहराई। छण इंद बिंबसम वयणि याहं, कुवलय दल दीहर णयणियाहं । केऊर हार कुण्डलधराह, कण कण कणंत कंकणकराहं।। 1:13 6. ब्रह्म बूचराजः-- . बुचराज राजस्थानी विद्वान थे। यद्यपि अभी तक किसी भी कृति में इन्होंने अपने जन्म-स्थान एवं माता-पिता आदि का परिचय नहीं दिया है किन्तु इनकी कृतियों की भाषा के आधार पर एवं म. विजयकीर्ति के शिष्य होने के कारण इन्हें राजस्थानी विद्वान् मानना अधिक तक-सगत होगा। वैसे ये सन्त थे। इन्होंने ब्रह्मचारी पद धारण कर लिया था इसीलिये साहित्य-प्रचार एवं धर्मप्रचार के लिये ये उतरी भारत में विहार किया करते थे। राजस्थान, पंजाब, दहला एव गजरात इनके मख्य प्रदेश थे। संवत 1582 में ये चम्पावती (चाटस) राजस्थान में थे और इस वर्षे फाल्गन सदी 14 के दिन इन्हें सम्यक्त्व कौमदी की प्रति भेंट स्वरूप प्रदान की गयी था। इन्होंने अपनी कृतियों में बचराज के अतिरिक्त बंचा. वल्हवील्ह अथवा वल्हव नामों का उपयाग किया है। एक ही कृति में दोनों प्रकार के नाम भी प्रयोग में आये हैं। इनकी रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बचराज का व्यक्तित्व एवं मनोबल बहुत ही ऊंचा था। इनकी रचनाएं या तो भक्ति-पूरक है अथवा उपदेश-पूरक । समय:-- कविवर के समय के बारे में नश्चित तो कछ भी नहीं कहा जा सकता लेकिन इनकी रचनाओं के आधार पर इनका समय संवत 1530 से 1600 तक का माना जा सकता है इन्होंने अपने जीवनकाल में भट्रारक भवनकोति. भ. ज्ञानभषण एवं भ. विजयकोति का समय दखा और इनके सानिध्य में रहकर आत्मलाभ के अतिरिक्त साहित्यिक लाभ भी प्राप्त किया । अभी तक इनकी आठ रचनायें प्राप्त हो चकी हैं। 'मयणजज्झ' इनकी अपभ्रश कृति हैं तथा शुष सब हिन्दी कृतियां हैं। इनकी अन्य कृतियों के नाम हैं-संतोष जयतिलक, चेतनपुद्गल धमाल, टंडाणा गीत, नेमिनाथ बसंत, नेमीश्वर का बारहमासा, विजयकीर्ति गीत आदि । 1. संबत 1582 फाल्गुन सुदी 14 शभ दिने • • • • • 'चम्पावतीनगरे · · · एतान । इदं शास्त्रं कौम दीं लिखाप्य कर्मक्षयनिमित्तं ब्रह्म बूचाय दत्तम् । प्रशस्ति संग्रह पृ.63
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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