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________________ 128 पूर्वकालिक और क्रियार्थक क्रियाओं के प्रयोगों में विकल्पों की भरमार, कृदंत क्रिया के कारण कालबोध के लिए सहायक क्रिया का विस्तार, उसकी प्रमख विशषताएं हैं। अपभ्रश साहित्य का युग संस्कृत साहित्य-मीमांसकों और इधर-उधर के उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि ईसा की छठी सदी से न केवल अपभ्रंश साहित्य लिखा जाने लगा था, बल्कि उसे मान्यता भी मिल चुकी थी। मैं 12वीं सदी तक अपभ्रंश का युग मानता हूं। यद्यपि उसके बाद 15वीं 16 वीं सदी तक अपभ्रश साहित्य लिखा जाता रहा है, परन्तु वह रूढ साहित्य है, भाषा और अभिव्यक्ति की दृष्टि से उसमें वह यगबोध नहीं है जो कि होना चाहिए। फिर इस काल में आ.भा. आर्य-भाषाओं का साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। 7वीं से 12वीं तक का यह काल, राजनीतिक दृष्टि से हर्ष के साम्राज्य के विघटन, राजपूतशक्तियों के उदय और संघर्ष तथा महम्मदविन कासिम (ई.711), महमूद गजनी (1026) और मुहम्मद गौरी (1194) जैसे विदेशी आक्रांताओं की सफल घुसपेठ का समय है। धामिक दृष्टि से आलोच्यकाल में बौद्ध और जैनधर्म के समानांतर शैव और वैष्णव भक्तिमतों का बोलबाला रहा। सभी धर्ममत आडंबर पूर्ण थे। धर्म और राज्य एक दूसरे पर आधारित थे। धम राज्य से विस्तार चाहता था, और राज्य धर्म से प्रेरणा। सिद्ध और हठयोग साधनाएं भी इसी युग की देन हैं। संस्कृत और प्राकृत साहित्य भी काफी मात्रा में इस काल म लिखा गया । स्वयंभू के पूर्व का अपभ्रश साहित्य दण्डी. भामह और बाणभट के उल्लेखों और स्वयभच्छंद से यह स्पष्ट है कि स्वयंभ (आठवीं और नौंवीं सदियों का मध्यबिन्दु) से दो सौ वर्ष पूर्व से अपभ्रश साहित्य की रचना होन लगी थी। स्वयंभूच्छंद में अकित एक दर्जन कवियों में पद्धडिया बन्ध के निर्माता कवि चतुर्मख और गोइंद (गोविन्द) के नाम उल्लेखनीय हैं। दोनों हरिकथा काव्य के रचयिता प्रतीत होते हैं। अनुमान है कि चतुर्मख ने कोई राम कथा काव्य लिखा होगा। स्वयंभूच्छंद के कृष्णकथा से संबन्धित एक उद्धरण का अर्थ है, 'यद्यपि कृष्ण सभी गोपियों को आदर से देखते हैं परन्तु उनकी दृष्टि वहीं पडती है जहां राधा है, स्नेहपरित नेत्रों को कौन रोक सकता है ?' इसमें राधा के प्रति कृष्ण के आकर्षण का उल्लेख महत्वपूर्ण है। इससे सिद्ध है कि स्वयंभू के पूर्व राधा कृष्ण लीलाएं लोकप्रिय हो चुकी थीं। स्वयंभच्छंद के उदाहरण में प्रकृति-चित्रण, ऋतु-प्रेम और उपालंभ से सम्बन्धित अवतरण हैं। जहां तक अपभ्रंश प्रवन्ध काव्यों (चरित काव्यों) का प्रश्न है उनकी कथा-वस्तु के मख्य स्रोत रामायण और महाभारत की 'वस्तु' है। विधाएं आलोज्य-काव्य को दो विधाएं मख्य और महत्वपूर्ण हैं,ये हैं प्रबन्ध और मक्तक । अपभ्रंश साहित्य में नाटक और गद्य-साहित्य का अभाव है। प्रारंभिक अपभ्रंश प्रबन्धकाव्य पुराण-काव्य के रूप में मिलते हैं। यहां 'चरिउ' और 'पुराण काव्य' का अन्तर समझ लेना उचित होगा। त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्रों का वर्णन करने वाला काव्य महापुराण कहलाता है। त्रेसठ शलाका पुरुषों में 24 तीर्थ कर,12 चक्रवर्ती और क्रमश: 9-9 बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण वाल्मीकि रामायण और महाभारत की कथा-वस्तु का सम्बन्ध, बलभद्र (राम) और नारायण (कृष्ण) से सम्बद्ध है। राम, बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में हए, जबकि कृष्ण 22 वें तीर्थकर नेमिनाथ के समय । संस्कृत में पृथक्-पृथक रूप में लिखित काव्यों को भी पुराण कहा गया, जैसे-आदि पुराण, पद्म पुराण, हरिवंश पुराण इत्यादि । आचार्य रविषेण ने पद्मचरित्र नाम भी दिया है। इसके विपरीत अपभ्रश के स्वयंभ,पउम चरिउ और रिटठणेमि चरिउ नाम देते
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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