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________________ अपभ्रंश साहित्य : सामान्य परिचय 1. -डा. देवेन्द्र कुमार जैन अपशब्द और अपभ्रंश अपभ्रश के साहित्य के साथ भाषा से भी परिचित होना जरूरी है। भाष्यकार के अनसार "शब्द थोडे हैं और अपशब्द बहत"। एक-एक शब्द के कई अपभ्रंश हैं, जैसे-'गो' के गावी, गौणी, गोता और गोपोतलिका । संस्कृत भाषा के संदर्भ में गो शब्द है। शेष अपशब्द हैं। गावी आदि शब्द, गो के अपभ्रंश है, अर्थात् तद्भव है, या गोमूलक शब्द ह जो संस्कृत के लिये अपशब्द होते हुए भी, दूसरी भाषाओं के लिय शब्द है। अतः अपशब्द और अपभ्रंश का एक अर्थ नहीं है, जैसा कि प्रायः भ्रम है। भाष्यकार से लगभग छह सौ साल बाद ईसवी 3री सदी में भरत मुनि ने आभीरोक्ति को उकार बहुला बताते हुए उसका उदाहरण दिया है-'मोरल्लउ नच्चन्तउ' इसका संस्कृत में होगा 'नृत्यमानः मयूरः', नृत्यमान का नच्चन्त और मयूरः का मोरल्लउ रूप प्राकृतिक प्रक्रिया पारकर ही संभव हो सका। अतः आभीरोक्ति आभीरों की स्वतंत्र बोली न होकर संस्कृत परंपरा मूलक बोली ही है,जो प्राकृतों की ओकारांत प्रकृति के समानान्तर विकसित हो रही थी, और 'नियप्राकृत' में जिसका पूर्वाभास मिलता है। रामः का विकास रामो और राम दोनों रूपों में संभव है, चूंकि अपभ्रंश क्रिया कृदन्त किया बहुल है अत: उसमें भी उकारांत की प्रवृत्ति आ गई। ईसा की 6ठी सदी में संस्कृत साहित्य समीक्षक दंडी आभीरोक्ति को साहित्यिक भाषा बनने पर, अपभ्रंश कहने के पक्ष में थे। इसका अर्थ है, वह भी आर्यभाषा मलक-भाषा सस्कृत का एक विकसित रूप है। अपभ्रश और देशी अपभ्रश को प्रायः देशी तत्व से प्रचुर समझा जाता है। इसे भी स्पष्ट कर लेना जरूरी है। पाणिनी अपनी भाषा को वैदिक भाषा की तुलना में लोकभाषा कहते हैं, वह भाषा जो लोक में व्यवहृत हो । साहित्यरूढ होने पर संस्कृत कहलाई। प्राकृतकाल में लोक के शब्द की जगह बोलचाल की भाषा के लिए देशी शब्द चल पडा। यह एक भाषा-वैज्ञानिक तथ्य है कि कोई भाषा बिना लोकाधार के पैदा नहीं होती, इसी प्रकार वह बिना संस्कार या नियमन के व्यापक और शिष्ट नहीं बनती। यह देशीभाषा साहित्यिक बनने पर प्राकृत कहलाई, जिसका व्याकरणिक, संस्कृत को प्रकृति मानकर किया गया। अपभ्रंश कवि स्वयंम 'पउमचरिउ' को एक ओर 'देशीभाषा उभय तडज्जल' कहते हैं और दूसरी ओर अपनी भाषा को 'गोभिल्ल वचन' से रहित भी बताते ह। स्वयंभू के समय देशी-वचन का स्थान ग्राम्य-वचन ले लेता है। कहने का अभिप्राय, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश, लोक देश ग्राम्य स्तर से उठकर ही साहित्यिक और सामान्य व्यवहार की भाषायें बनती हैं। अतः अपभ्रंश का अर्थ न तो बिगडी हई भाषा है और न जनबोली, और न यह कि जिसका उच्चारण ठीक से न हो सके। जैसा कि अपभ्रश के कुछ युवा अध्येता समझते हैं। यह भ्रम भी निराधार है कि अपभ्रश केवल काव्यभाषा थी, या यह कि उसमें गद्य नहीं था। संस्कृत; प्राकृत की तुलना म अपभ्रंश का क्षेत्र सीमित है, परन्तु उसकी कडवक शैली में और संवादों और वर्णनों में अपभ्रश गद्य का रूप देखा जा सकता है। सोचने की बात है कि क्या बिना गद्य के कोई भाषा विकास कर सकती है ? अपभ्रंश में उकारान्त प्रकृति के साथ आकारांत प्रकृति की भी बहुलता है, कृदंत क्रियाओं की मुख्यता, शब्द क्रियारूपों की कमी, विभक्तियों का लोप, षष्ठी विभक्ति की व्यापकता, दुहरी विभक्तियों और परसर्ग के समान नए शब्दों का प्रयोग
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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