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________________ 233 14 टका 15. टम्बा 1. पनुवाद 17. व्याकरण 18. प्रकीर्णक विषयः-वैविध्य की दृष्टि से भी यह गद्य साहित्य सुसम्पन्न है। तेरापन्थ धर्म-संघ को मर्यादित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने के लिये समय-समय पर छोटी से छोटी प्रवृत्ति व मर्यादा को भी साहित्यबद्ध करने की परम्परा रही है, फलस्वरूप राजस्थानी मर की विधान या मर्यादा-परक रचनायें प्रचर परिमाण में मिलती हैं। नवीन धर्म-संघ की मान्यतामों के प्रचार-प्रसार हेतू तात्विक या सैद्धांतिक कृतियों का सृजन भी प्रारम्भिक काल में बगत मा है। व्याख्यान के उद्देश्य से उपदेशात्मक व कथात्मक गद्य साहित्य भी विपुल मात्रा में विधा गया। अतीत की अनेक घटनाओं को लिपिबद्ध कर तेरापन्थ के इतिहास को बिलुप्त होने से बचाने का कार्य भी क्रमश: चलता रहा , फलतः ऐतिहासिक गद्य का निर्माण भी बहतामा। प्रथम बार सजित संस्मरणात्मक राजस्थानी गद्य भी इस सम्प्रदाय में ही मिलता है। मागम ज्ञान की दूरुहता को कम कर उसे सहज सुलभ करने की दष्टि से अनवाद व उब्दों की रचना की गई। व्याकरण-बोध की प्रक्रिया में तत्संबंधी कृतियां भी उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार तेरापन्य सम्प्रदाय का राजस्थानी गद्य साहित्य विषय वस्तु की विविधता से परिपूर्ण बोर विमाल है। तत्कालीन धार्मिक एवं सामाजिक चेतना के प्रस्फुटन और अध्ययन की दृष्टि सेबी इसके अनन्य महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। मोटे रूप में इस गद्य साहित्य का नियमानुसार वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है: 1. विधान या मर्यादा प्रधान १. तात्विक . उपदेशात्मक संस्मरणात्मक .. पाख्यानात्मक ऐतिहासिक व्याकरण संबंधी .. अनुदित व टीकामूलक सम्पूर्ण गड साहित्य की राजस्थानी भाषा सहज व सरल है। स्थानीय शब्दों का प्राचुर्य भीमा-बदेखने को मिलता है। कहीं-कहीं गुजराती प्रभाव भी रचनाओं में पाया जाता है। वहाँहीची भाषा में अलंकारिता पाई है, उससे विषय वस्तु में निखार ही पाया है। भाषा के नमूनोंकारण ही समाज में ये इतनी अधिक बोधगम्य भौर प्रिय रही हैं कि अधिकांश रचनायें लोगों में भाव भी कण्ठस्थ हैं। पवमा भौर उनकी कृतिमा: तेरापंप के राजस्थानी गद्यकार संख्या की दृष्टि से यद्यपि कम हैं किन्तु उनका राजस्थानी गर-साहित्य में गुणात्मक योग किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। यहां प्रत्येक गद्यकार, उसकी स्थाका परिचय यथा संभव उदाहरण सहित संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है:-- #. भाचार्य संत भीखणजी: राजस्थान के तत्कालीन जोधपुर राज्य के अन्तर्गत कंटालिया (वर्तमान में जिला पाली) *वि.सं. 170 की भाषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को भीखणजी (भिक्षु) का जन्म हुआ। इनके
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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