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________________ .. ' पेता ओसवाल जाति के संकलेचा गोत्र के शाह बलूजी थे। माता का नाम दीपाबाई था। इनके एक बड़े भाई भी थे, जिनका नाम होलोजी था। बचपन से ही ये धर्मनिष्ठ, सत्यशोधक पौर सुधारवादी प्रवृत्ति के थे। विवाहोपरान्त असमय में ही इनकी पत्नी का देहावसान हो जाने से इनमें वैराग्य की प्रबल भावना जागृत हुई। अन्ततः वि. सं. 1808 की मृगशिर कृष्णा द्वादशी को स्थानकवासी सम्प्रदाय के तत्कालीन प्राचार्य संत रुघनाथ जी के पास 25 वर्ष की उम्र में बगडी कस्बे में ये दीक्षित हये। दीक्षा के पश्चात इन्होंने अपना सारा ध्यान आगम-मन्थन एवं चिन्तन में लगा दिया। प्रपनी तीक्ष्ण और कुशाग्र बुद्धि के द्वारा सत्य से साक्षात्कार करने में इन्हें अधिक समय न लगा। वि. सं. 1815 के राजनगर (मेवाड़) चातुर्मास के पश्चात् आचार-विचार संबंधी मान्यताओं को लेकर अपने गुरु से इनका मतभेद हो गया। फलस्वरूप वि. सं. 1817 की चैत्र शुक्ला नवमी को इन्होंने चार अन्य साधनों के साथ प्राचार्य रुघनाथ जी से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। तत्पश्चात केलवा (मेवाड़) के चातुर्मास के समय वि. सं. 1817 की प्राषाढ़ पूर्णिमा को इन्होंने भाव-संयम धारण किया। इसी दिन से तेरापन्थ की स्थापना हुई। एवं नवीन धार्मिक क्रान्ति का श्रीगणेश हा। लगभग 44 वर्ष तक नवीन धर्म संघ का नेतृत्व करते हुये 77 वर्ष की अवस्था में वि. सं. 1860 की भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को भापका सिरियारी (मारवाड़) में स्वर्गवास हुआ। क्रान्त दृष्टा आचार्य भीखणजी का एकमात्र उद्देश्य सम्यग् प्राचार और सम्यग् विचार की पुनः संस्थापना करना था। इस दुर्द्धर मार्ग को सहज व सरल बनाने के लिये आपने तत्कालीन राजस्थानी भाषा को अपने प्रवचन तथा नवीन साहित्य के निर्माण के लिये प्राधार बनाया। प्रागमों की गढ़ बातों को सीधी सरल राजस्थानी में अभिव्यक्त करने में भी भीखण जी सिद्धहस्त थे। अपने जीवनकाल में अापने लगभग अड़तीस हजार श्लोक परिमाण साहित्य गद्य व पद्य में लिखे। समस्त साहित्य तत्व-विश्लेषणात्मक, शिक्षात्मक, प्राचार-शोधक, पाख्यानात्मक, स्तवन प्रधान एवं अन्य विषयों से संबंधित है। गद्य-साहित्य अभी तक अप्रकाशित है। मध में आपकी रचनायें मख्यतः हण्डी, चर्चा, थोकडा, सिखत, (मर्यादा पत्र) आदि के रूप में उपलब्ध होती हैं। रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: (क) हुण्डियां: हण्डी शीर्षक से दो गद्य रचनायें मिलती हैं, यथा 306 बोलां री हण्डी तथा 181बोलारी हण्डी। दोनों हण्डियों में सैद्धान्तिक एवं मान्यता संबंधी विश्लेषण प्रागम-ग्रंथों की सार्शी के अाधार पर किया गया है। यह विश्लेषण मुख्यतः दया, दान, वृत, अवत, श्रद्धा, अधदा तथा प्राचार-विचार से संबंधित हैं: 1. 306 बोलां री हुण्डी:-यह एक बड़ी रचना है जो 55' पती में समाप्त हई है। इसका प्रधान विषय वीतराग द्वारा प्रतिपादित धर्म है। भीखणजी ने इसके द्वारा यह स्पष्ट किया है कि वीतराग का धर्म वीतराग की प्राज्ञा. में चलने से ही होता है। वीतराग की आज्ञा के बाहर कोई धर्म नहीं है। रचना का प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है:-- "श्री वीतराग नो धरम वीतराग री आग्या मांहि छ। तिण धरम नी विगत । एक धरम साधु रो ते तो सरब धरम कहिये ये। बीजो धरम श्रावक रोते देस धरम
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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