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________________ पाचक धर्मसमुद्र : - धर्मसमुद्र वाचक विवेकसिंह के शिष्य थे। इन्होंने 'सुमित्र कुमार रास' संवत् 1567 में जालौर में 337 पद्यों में बनाया था। दानधर्म के महात्म्य पर इस चरित्र काव्य की रचना हुई। 'कुलध्वज कुमार रास' को कवि ने 1584 में समाप्त किया। इसमें 143 पद्य हैं। कवि ने मेवाड के धजिलाणापुर में संवत् 1573 में श्रीमल साह के आग्रह से एक कल्पित कथा 'गुणाकर चौपई' की रचना की। इसमें 530 पद्य हैं। कवि ने 104 पद्यों में 'शकुन्तला रास' का निर्माण किया। इनके अतिरिक्त सुदर्शनरास, सुकमाल सज्झाय मादि और भी कितनी ही लघु रचनाएं मिलती हैं। सहजसुन्दर : ... उपाध्याय रत्नसमुद्र के शिष्य कवि सहजसुन्दर भी इसी शताब्दी के कवि थे। संवत् 1570 से संवत् 1596 तक इनकी 10-रचनायें प्राप्त हो चुकी हैं। इनके इलाती पुत्र सज्झाय, गुणरलाकर छन्द (सं. 1572), ऋषिदत्तारास, आत्मराग रास, परदेशी राजा रास का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । भक्तिलाभ व उनके शिष्य चारुचन्द्र : खरतरगच्छ के प्रसिद्ध विद्वान उपाध्याय जयसागर के प्रशिष्य भक्तिलाभ उपाध्याय भी अच्छे विद्वान हो गये हैं। जिनकी कल्पान्तरवाच्य, बाल-शिक्षा आदि संस्कृत रचनाओं के 'अतिरिक्त 'लघु जातक' नामक ज्योतिष ग्रन्थ की भाषा टीका संवत् 1571 बीकानेर में रचित प्राप्त है। यह राजस्थानी के अच्छे कषि भी थे, यद्यपि इनकी कोई बडी रचना नहीं मिली पर सीमंधर स्तवन, वरकाणा स्तवन, जीरावली स्तवन, रोहिणी स्तवन आदि कई स्तवन प्राप्त हैं। इनमें सीमंधर स्तवन का तो काफी प्रचार रहा है। भक्तिलाभ के शिष्य चारुचन्द्र रचित उत्तमकुमार चरित्र की स्वयं लिखित प्रति हमारे संग्रह में है जो संवत् 1572 बीकानेर में लिखी गई है। पार्श्वचन्द्र सूरि : __इस शताब्दी के अन्त में और उल्लेखनीय राजस्थानी जैन कवि पाश्वंचन्द्र सूरि हैं । इनके नाम से पार्श्वचन्द्र गच्छ प्रसिद्ध हुआ। बीकानेर में इस गच्छ की श्रीपूज्य गद्दी है । 'नागौर में भी गच्छ का प्रसिद्ध उपाश्रय है। पार्श्वचन्द्र का जन्म सिरोही राज्य के हमीरपुर के पोरवाड वेलगसाह की पत्नी विमलादे की कुक्षि से सं. 15 37 में हुआ था। 9 वर्ष की छोटी आयु में ही उन्होंने मुनि दीक्षा स्वीकार की और जल्दी ही पढ-लिख कर विद्वान बन गये, इसलिये केवल 17 वर्ष की आय में उपाध्याय पद और 28 वर्ष की आय में प्राचार्य पद प्राप्त किया। संवत् 1612 में जोधपुर में इनका स्वर्गवास हा। गद्य और पद्य में इनकी छोटी बड़ी शताधिक • रचनायें मिलती हैं। पार्श्वचन्द्र सूरि की अधिकांश रचनायें सैद्धान्तिक विषया संबंधी हैं । इसलिये काव्य की दष्टि से, रचनायें संख्या में अधिक होने पर भी. उतनी उल्लेखनीयन इनकी बालावबोध संज्ञक भाषा टीकायें तत्कालीन राजस्थानी गद्य के स्वरूप को जानने के लिये महत्व की हैं। 'अंग सूत्रों पर सबसे पहले भाषा टीकायें इन्हीं की मिलती हैं। विजयदेवसूरि : इनके प्रगुरु पुंजराज के शिष्य विजयदेवसूरि का 'शीलरास' काव्य की दृष्टि से भी (छोटा होने पर भी) महत्व का है और उसका प्रचार इतना अधिक रहा है कि पचासौं हस्तलिखित
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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