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________________ 174 प्रतियां प्राप्त हैं; यद्यपि उसमें रचनाकाल का उल्लेख नहीं है, पर संवत् 1611 की लिखी हुई प्रति प्राप्त है। पार्श्वचन्द्रसूरि के पट्टधर समरचन्द्र को प्राचार्य पद संवत् 1604 में मिला था और उससे पहले ही विजयदेवसरि का स्वर्गवास हो गया इसलिये इस रचना को 16वीं शताब्दी के अन्त की ही मानी जा सकती है। इस रास की रचना जालौर में हुई थी। 80 पद्यों का यह राम प्रकाशित भी हो चुका है। 'वीसलदेव रास' की तरह इसका छन्द काफी बड़ा है। इसलिये 80 पद्यों का श्लोक परिमाण 270 पद्यों का हो जाता है। शील के महात्म्य का बड़े सुन्दर ढंग से और सरल भाषा में कवि ने निरूपण किया है, इसीलिये वह इतना लोकप्रिय हो सका। वाचक विनयसमुद्र : इस शताब्दी के अन्तिम कवि जिनकी सं. 1611 तक की रचना प्राप्त है, वाचक विनयसमुद्र हुए हैं जो उपकेश गच्छ के वाचक हर्षसमुद्र के शिष्य थे। बीकानेर में रची हुई इनकी कई रचनायें प्राप्त हैं। एक जोधपुर और एक तिवरी में भी रची गई। संवत् 1583 से 1614 तक में रची हई इनकी करीब 25 रचनायें प्राप्त हुई हैं, जिनमें से 20 का विवरण राजस्थान भारती, भाग 5, अंक 1 में प्रकाशित 'वाचक विनयसमुद्र' लेख में दिया गया है। 17वीं शताब्दी: मालदेव : वाचक मालदेव प्राचार्य भानदेवसरि के शिष्य थे। संस्कृत, प्राकृत रचनाओं के प्रतिरिक्त, कवि ने राजस्थानी भाषा में कितनी ही रचनायें लिखीं। इनके द्वारा रचित 'पुरन्दर चौपई' का तो विशेष प्रचार है। विक्रम और भोज को लेकर उन्होंने बड़े-बड़े राजस्थानी काव्य लिखे हैं। कवि की पुरन्दर चौपई, सूरसुन्दर चौपई, भोज प्रबन्ध, विक्रम पंचदण्ड चौपई, अंजना सुन्दरी चौपई, पदमावती पदमश्री रास, आदि 20 से भी अधिक रचनायें उपलब्ध हैं। पुण्यसागर : महोपाध्याय पुण्यसागर ने सुबाहुसंधि की रचना संवत् 1694 में जैसलमेर में की थी। इसमें 89 पद्य हैं। इसके अतिरिक्त साध वन्दना, नमि राजर्षिगीत आदि और भी कितनी ही रचनायें मिलती हैं। इनके अनेक शिष्य, प्रशिष्य थे और वे सभी राजस्थानी के अच्छे विदान थे। इनके शिष्य पदमराज ने अभयकुमार चौपई (सं. 1650), क्षुल्लक ऋषि प्रबन्ध (सं. 1667), सनत्कुमार रास (1669) की रचना की थी। पुण्यसागर के प्रशिष्य परमानन्द ने देवराज वच्छराज चौपई (सं. 1675) की रचना की थी। साधुकीर्ति : जैसलमेर वृहद् ज्ञान भण्डार के संस्थापक जिनभद्रसूरि की परम्परा में अमरमाणिक्य के शिष्य उपाध्याय साधुकीत्ति राजस्थानी के अच्छे विद्वान थे। विशेष नाममाला, संघपट्टकवृत्ति, भक्तामर अवचरि आदि संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त मापने राजस्थानी गद्य-पद्य में अनेक रचनायें की हैं। आपकी सर्वप्रथम रचना सप्तस्मरण बालावबोध संवत 1611 की है। उसके पश्चात् दिल्ली, अलवर, नागौर आदि नगरों में इन्होंने और भी रचनायें लिखीं।। इनके गुरुभ्राता कनकसोम भी अच्छे कवि थे, जिनकी जैतपदवेलि (सं. 1625), जिनपालित जिनरक्षित रास (1632), आषाढभूति धमाल (1638), हरिकेशी संधि
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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