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________________ 188 इन्होंने चित्रकारी की। उस पर अच्छा रंग किया और प्रातःकाल उसे देखा तो हजारों कीट मच्छर उस रंग पर चिपके हुए दृष्टिगत हुए। इस दृश्य को देखकर उनका कोमल-करुण हृदय पसीज उठा और ये साधु बन गये। ये बड़े विद्वान् कवि, तपस्वी एवं शासन-प्रभावक संत थे । कोटा, बंदी, झालावाड़, सवाई माधोपुर, टौंक इनके प्रमख विहार क्षेत्र रहे। इनके उपदेशों से प्रभावित होकर मीणा लोगों ने मांस, मदिरादि सेवन का त्याग किया। इनका रचनाकाल 19वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध रहा है। उनकी रचनाओं में महावीर स्वामी चरित, जम्ब चरित, चन्द सेन राजा की चौपाई, चौबीसी, अठारह पाप के सवैये, बंकचल का चरित्र, श्रीमती का चौढालिया, विजयकंवर व विजय कूवरी का चौढालिया. लालचन्द बावनी आदि प्रमख है (14) हिम्मतराम : ये संवत् 1895 में जोधपुर में प्राचार्य श्री रतनचन्द म. के चरणों में दीक्षित हुए। ये अपनी साधना में कठोर और स्वभाव से मधुर तथा विनयशील थे। कवि होने के साथ-साथ ये अच्छे लिपिकार भी थे। इन्होंने अनेक सूत्रों, थोकडों, चौपाइयों और स्तवनों का प्रतिलेखन भी किया। अपने गुरु रतनचन्द जी से इन्हें काव्य रचना करने की प्रेरणा मिली। इनकी रचनायें मुख्यतः दो प्रकार की हैं-कथापरक और उपदेश परक। कथापरक रचनाओं में तीर्थकरों और मादर्श जीवन जीने वाले मुनि-महात्माओं का यशोगान किया है। उपदेशपरक रचनाओं में मन को राग-द्वेष से रिक्त होकर प्रात्मकल्याण की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी गई है। सम्यक्ज्ञान प्रचारक मंडल जयपुर ने उनकी रचनाओं का एक संग्रह 'हिम्मतराम पदावली' नाम से प्रकाशित किया है: (15) सुजानमल : इनका जन्म वि. सं. 1896 में जयपुर के प्रतिष्ठित जौहरी परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम ताराचन्द जी सेठ व माता का राई बाई था। वैभव सम्पन्न घराने में जन्म लेकर भी इनकी धर्म में गहरी श्रद्धा थी। इनका कंठ मधर था और संगीत में अच्छी रुचि थी। इनके जीवन के 30वें वर्ष में एक व्याधि उत्पन्न हुई। बड़े-बड़े डाक्टरों और वैद्यों का उपचार किया गया पर शांत होने के बजाय वह और बढ़ती गई। इससे ये सर्वथा पंगु और परावलम्बी बन गये। अंत में इन्होंने अनाथीमुनि की तरह मन ही मन दढ़ संकल्प किया कि यदि मैं नीरोग हो जाऊं तो पूज्य विनयचंद जी म. सा. के सान्निध्य में प्रव्रज्या धारण करूं। इस संकल्प के बोड़े ही दिनों बाद इनकी व्याधि दूर हो गई और इन्होंने संवत् 1951 में आश्विन शुक्ला त्रयोदशी को जयपुर में अपने 15 वर्षीय बाल साथी कपूरचन्द पाटनी के साथ प्राचार्य विनय चंद जी म. के पास दीक्षा अंगीकृत की। इनमें काव्य रचना की प्रतिमा प्रारम्भ से ही थी। अब सुमार्ग पाकर प्रति दिन ये नये-नये पदों की रचना करने लगे। इनके रचे लगभग चार सौ पद्य मिलते हैं। इनका संग्रह 'सूजान पद सूमन वाटिका' नाम से प्रकाशित हा है।1 इनके प्रत्येक पद्य में प्रात्मकल्याण और जीवन-सुधार का प्रेरणादायी संदेश भरा पड़ा है। संवत् 1968 में इनका निधन हुमा। (16) रामचन्द्र :-- ये प्राचार्य जयमल्ल जी की परम्परा के श्रेष्ठ कवियों में से हैं। इनके प्रोपदेशिक पद प्राध्यात्म भावना से प्रोतप्रोत हैं। इनकी रचनाएं ज्ञान-भण्डारों में बिखरी पड़ी हैं जिनमें 1. सं. पं. मुनि श्री लक्ष्मीचन्द जी म., प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, जयपुर।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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