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विजयकुमार का चौढालिया, विष्णु कुमार चरित, शालिभद्र घन्ना अधिकार छहढालिया, हरिकेशी मुनि चरित, उपदेशी ढाल आदि प्रमुख हैं।'
(17) तिलोक ऋषि:--
इनका जन्म संवत् 1904 में चैत्रकृष्णा तृतीया को रतलाम में हुआ। इनके पिता का नाम दुलीचन्द जी सूराणा और माता का नानूबाई था। संवत् 1914 में माघ कृष्णा प्रतिपदा को ये अपनी मां, बहिन और भाई के साथ प्रयवंता ऋषि के सान्निध्य में दीक्षित हए। इनका विहारक्षेत्र मुख्यत: मेवाड़, मालवा और महाराष्ट्र रहा। 36 वर्ष की अल्पायु में ही सं. 1940 में श्रावणकृष्णा द्वितीया को अहमदनगर में इनका निधन हो गया। पिछड़ी जाति के लोगों को व्यसन मुक्त बनाने में इनकी बड़ी प्रेरणा रही है।
तिलोक ऋषि कवित्व की दृष्टि से स्थानकवासी परम्परा के श्रेष्ठ कवियों में से हैं। इनका काव्य जितना भावनामय है, उतना ही संगीतमय भी। इन्होंने जन-साधारण के लिये भी लिखा और विद्वत्मण्डली के लिये भी। पदों के अतिरिक्त इन्होंने भक्ति और वैराग्य भाव से परिपूर्ण बहत ही प्रभावक कवित्त और सवैये लिखे। इनके समस्तकाव्य को दो वर्गों में रक्खा जा सकता है-रसात्मक और कलात्मक। रसात्मक कृतियां विशद्ध साहित्यिक रस बोध की दृष्टि से लिखी गई हैं। इनमें कवि की अनुभूति, उसका लोक निरीक्षण और गेय व्यक्तित्व समाविष्ट है। ये आगमज्ञ, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के विद्वान शास्त्रीय ज्ञान के धनी, विभिन्न छंदों के विशेषज्ञ और लोक संस्कृति के पंडित थे। यही कारण है कि इनकी रचनामों में एक अोर संत कवि का सारल्य है तो दूसरी ओर शास्त्रज्ञ कवि का पांडित्य। ये रसात्मक कृतियां तीन प्रकार की हैं-स्तवनमूलक, आख्यानमूलक और प्रौपदेशिक । स्तवनमूलक रचनाओं में चौबीस तीर्थ करों, पंच परमेष्ठियों, गणधरों और संत-सतियों की स्तुति विशेष रूप से की गई है। इनमें इनके बाह य रूप रंग का वर्णन कम, प्रांतरिक शक्ति तथा गरिमा का वर्णन अधिक रहा है। ग्राख्यानमुलक रचनाओं में इतिवृत्त की प्रधानता है। इनमें विभिन्न दृढ़व्रती श्रावकों और मनियों को वर्ण्य विषय बनाया गया है। औपदेशिक रचनाओं में कवि की विशेषता यह रही है कि उसमें रूपक योजना द्वारा सामान्य लौकिक विषयों को अध्यात्म भावों के माधुर्य से विमंडित कर दिया है।
कलात्मक कृतियों में कवि की एकाग्रता, उसकी सूझबूझ, लेखन-कला, चित्रण-क्षमता, और अपार भाषा-शक्ति का परिचय मिलता है। ये कलात्मक कृतियां दो प्रकार की हैंचित्रकाव्यात्मक और गूढार्थमूलक ।
चित्रकाव्यात्मक रचनाएं तथाकथित चित्रकाव्य से भिन्न हैं। इनमें प्रधान - दृष्टि चित्रकार के लाघव व गणितज्ञ की बद्धि के कारण, चित्र बनाने की रही है। ये चित्र दो प्रकार के हैं। सामान्य और रूपकात्मक। सामान्य चित्रों में कवि ने स्वरचित या किसी प्रसिद्ध कवि की कविताओं, दोहे, सवैये, कवित्त आदि को इस ढंग से लिखा है कि एक चित्ररूप खड़ा हो जाता है। समुद्र बंध, नागपाश बंध आदि कृतियां इसी प्रकार की हैं। इन चित्रों के नामानुरूप भाववाली कविताओं को ही यहां लिपिबद्ध किया गया है। समुद्रबन्ध कृति में संसार को समुद्र के रूप में उपमित करने वाली कविता का प्रयोग किया गया है। नागपाश बन्ध में भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की उस घटना को व्यक्त करने वाला छन्द सन्निहित है जिसमें उन्होंने कमठ तापस की पंचाग्नि से संकटग्रस्त नाग दम्पत्ति का उद्धार किया था। रूपकात्मक
1. इनकी हस्तलिखित प्रतियां प्रा. वि. ज्ञा. भ. जयपुर में सुरक्षित हैं। 2. देखिए-अध्यात्म पर्व दशहरा स्वाध्याय, प्र. श्री जैन धर्म प्रसारक संस्था नागपुर।