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________________ किया । 272 "विरह आणि उपजी अधिक, ग्रहनिस दहे सरीर । साहित्र देहूं पताऊ करि दरसन रूपी नोर ॥ 58|| वार्ता कागद बाच्चा | राजा हर्षित भया । शुभ मूहर्त पंच कन्या सेती मदन को ब्याह करमोवन अर्द्ध राज्य दिया । मदन पंच स्त्रो के संग सुख भोग ।" 6 5. कवि कुशललाभ ये खरतरगच्छ के वाचक अभयधर्म के शिष्य थे । "ढोलामारू चौरई" आपको बहुत हो प्रसिद्ध रचना है । राजस्थान में तो ये उल्लेखनीय कवि थे हो, पर इनकी एक हिन्दी रचना " स्थूलभद्र छत्तासो" भी प्राप्त है जो अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में संगृहीत है । के तोर पर प्रथम पद्य देखियेः- उदाहरण (1 'सारद शरद चन्द्र करि निर्मल ताके चरण कमल चित लायक । सुणत संतोष हुई श्रवण कुं नागर चतुर सुनह चित चायकई । कुशललाभ बुल्लति आनन्द भरि सुगुरु पसादि परम सुख पायकई । करहु थूलभद्र छत्रीसो प्रति सुन्दर पद बंध बनाय कई |1| अद्रसेन खरतरगच्छ के इस कवि का नामोल्लेख सं. 1675 के शत्रुंजय शिलालेख में पाया जाता हैं । इनको प्रसिद्ध रचना "चन्दन मलयागिरि चौपई" बीकानेर में रची गई, क्योंकि इसके प्रारम्भ में कवि ने विक्रमपुर का उल्लेख किया है। यह रचना बहुत लोकप्रिय रही है और इसकी कई सचिन प्रतियां भी त्रास है । इसको एक सचित्र प्रति प्रभय जैन ग्रंथालय में भी प्राप्त है । श्री सातभाई नवाब ने इसका सचित्र संस्करण “श्राचार्य आनन्दशंकर ध्रुव स्मारक ग्रन्थ" में मन् 1944 में प्रकाशित किया था । रचना दोहा छन्द में है, बोच-बीच में कुछ गाथायें भी पाई जाता है। प्रारम्भ के 4 दोहे उद्धत किये जा रहे हैं: we appr स्वस्ति श्री विक्रमपुरे, प्रणमी श्री जगदीश । तन मन जीवन सुखकरण, पूरण जगत जगीस 111 वरदायक वर सरसती, मति विस्तारण मात । प्रणामी मनि धर मोद सुं, हरण विधन संघात 121 मम उपगारी परम गुरु, गुण अक्षर दातार । चांदी ताके चरण युग, भद्रसेन मुनि सार | 3 | कहां चन्दन कहां मलयागिरि, कहां सायर कहां नीर । कहि हइ ताकी वारता, सुणउ सबै वरंबीर 141 7 मानसिंह 'मान' खरतरगच्छ के उपाध्याय शिवनिधान के शिष्य और सुकवि थे । कवि का दीक्षानाम महिमासिंह था । सं. 1670 से 1693 तक को इनकी बहुत सा रचनायें प्राप्त हैं, जिनमें राजस्थानी काव्य हो अधिक है । हिन्दी को भी आपकी तीन रचनायें मिली हैं -- 1. योग बावनी, 2. उत्पत्तिनामा, श्रीर 3. भाषा कवि रस मंजरी । इनमें से 'भाषा कवि रस मंजरी' की एक प्रति अभय जैन ग्रन्थालय में है । नायक-नायिका वर्णन सम्बन्धी इसमें 107 पद्य हैं। शृंगार रस वाली जैन कवियों की ऐसी रचनायें बहुत कम मिलती हैं । रचना के प्रान्त के पद्य मीचे दिये जा रहे हैं:----
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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