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________________ 271 मेरी जीयु आरति काइ घरइ । जइसा वखत मई लिखति विधाता, तिग मई कुछ न टरई । में 1 कई चक्रवर्ती सिर छत्र धरावत, केइ कण मांगत फिरइ । hs सुखिए केइ दुखिए देखत, ते सब करम करइ मे. 21 आरती अंदोह छोरि दे जीयुरा, रोवत न राज चरइ । समयसुन्दर कहा जो सुख वंछत, तर करि भ्रम चित खरइ । मे. 31 कवि समयसुन्दर का जन्म सांचोर में हुआ था । राजस्थान में विचरण करते हुए मापने बहुत सी महत्वपूर्ण रचनायें की हैं । इनका विशेष परिचय संस्कृत और राजस्था मी विभाग में दिया जा चुका है । 3. जिन राजरि अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के ये प्रशिष्य थे । सं. 1647 में बीकानेर बोयरा धर्मसी की पत्नी धारलदेवी की कुक्षि से श्रापका जन्म हुआ था । 10 वर्ष की अल्पायु में जैन म ुनि दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दोक्षानाम राजसमुद्र रखा गया था । ये प्रपने समय के बहुत बड़े विद्वान और सुकवि थे । सं. 1674 में मेड़ता में श्रापको प्राचार्य पद मिला था । इन्होंने काव्य पर 36000 श्लोक प्रमाण की संस्कृत टीका बनाई और गांगाणी के प्राचीन लेखों को पढा था । सं. 1686 आगरा में ये सम्राट शाहजहां से मिले थे। इनकी "शालिभद चौपई" सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है । उसके साथ बाकी रचनाओं का संग्रह भी “जिनराजसूरि कृति संग्रह" में प्रकाशित किया जा चुका राजस्थानी के साथ-साथ आपने हिन्दी में भी बहुत ' से सुन्दर पदों की रचना की है, उनमें से रामायण संबन्धी एक पद नीचे दिया जा रहा है: मंदोदरी बार बार इम भाखर । दस सिरि अरु गढ लंका चाहइ, तर पर स्त्री जन राखइ (मं. 1) पलय दिवस विभीषण पलटयउ, पाज जलधि परि झाखह । बौव पेड़ आक के प्रांगण, अंब किहां थइ चाखह | मं. 21 जीती जाई सकइ नहीं कोऊ, बलि एहि जगि आखई । 'राज' वदत रावण क्युं समझइ, होणहार लंकाखद || मं. अ 4. कवि दामो ये मंच लगच्छ के वाचक उदयसागर के शिष्य थे । इनका दीक्षा नाम दयासागर था । सं. 1669 जालोर में इन्होंने 'मदन नरिद चौपई” की रचना की जिसके अन्त में इन्होंने मपदे पूर्व रचित " मदन - शतक" का उल्लेख इस प्रकार किया है: "मदन शतक" ना दूहडा, एकोत्तर सौ सार । मदन नारद तण चरित, मंई विरच्यं विस्तारि ॥165 || मदनशतक हिन्दी भाषा का एक सुन्दर प्रेम काव्य है । यह बहुत लोकप्रिय रहा है। इसकी अनेकों हस्तलिखित प्रतियां बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी, अभयजैन ग्रंथालय आवि में प्राप्त हैं । जिनमें से एक प्रति में आठ चित्र भी हैं। जैसाकि उपरोक्त उद्धरण में लिखा गया है कि इसमें 101 दोहे थे, किन्तु आगे चलकर इसकी पद्य संख्या में भी वृद्धि हुई और गद्य वार्ता का भी इसमें समावेश हो गया। आगरा विश्वविद्यालय के "भारतीय साहित्य" जुलाईअक्टूबर, 1962 के अंक में मदनशतक प्रकाशित हो चुका है, जिसमें 132 पथ और वार्ता भी है। इस रचना के बीच में गुप्तलेख जो रतिसुन्दरी ने अपने प्रियतम को भेजा था, वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस शतक की हिन्दी भाषा के नमूने के रूप में एक पद्म और वार्ता उद्धस की जा रही है:
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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