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________________ 14 धर्मोपदेशमाला-विवरण इसकी रचना जयसिंहसूरि ने वि. सं. 915 में नागौर में की थी। गद्य-पद्य मिश्रित इस ग्रन्थ मै कवि ने धार्मिक तत्वज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए कथाएं प्रस्तुत की है। दान, शील, तप की प्रतिष्ठा इन कथाओं के द्वारा होती है। भव-भावना मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने वि. सं. 1170 में मेड़ता और छत्रपल्ली में रहकर भवभावना (उपदेशमाला) और उस पर स्वापज्ञवृत्ति की रचना की थी। ग्रन्थ में 531 गाथाओं में -12 भावनाओं का वर्णन है । वृत्ति में अनेक प्रात कथाए गंफित है। सांस्कृतिक इति से उनका बड़ा महत्व है। अनेक सुभाषित इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। विपत्ति के आने के पहिलेही उसका उपाय साचना चाहिये। घर में आग लगने पर काई कुंपा नहीं खोद सकता। यथा पढमं पि पावयाणं चितयव्वो नरेण पडियारो । नहि गेहम्मि पलिते अवडं खणिउ तरइ कोई ।। हेमचन्द्रसूरि की दूसरी महत्वपूर्ण रचना उपदेशमाला या पुष्पमाला है। इसमें शास्त्रों के अनसार विविध दृष्टान्तो द्वारा कर्मों के क्षय का उपाय प्रतिपादित किया गया है। तप माहिर स्वरूप एव इन्द्रिय-निग्रह सम्बन्धी विशेष जानकारी इसमें दी गयी है। संवेगरंगशाला इसके रचयिता जिनचन्द्रसूरि राजस्थान के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उन्होंने शान्तरस से भरपर इस संवेगरंगशाला की रचना वि. सं. 1125 में की थी। इसमें दस हजार तिरेपन गाथानों संवेगभाव की महत्ता प्रगट की गयी है।4 कहा गया है कि जिसके संवेगभाव नहीं है उसकी बाको सब तपस्या आदि भूसे के समान निस्सार है-- 'जइनो संवेगरसा ता तं तुसखंडणं सव्वं ।' विवेकमंजरी महाकवि श्रावक पासड़ ने वि. सं. 1248 में विव कमंजरी की रचना की थी। इस ग्रन्थ में विवक की महिमा बतलायी गयी है तथा मन की शुद्धि की प्रेरणा दी गयी है। इसमें 12 भावनाओं का भी वर्णन है। इस ग्रन्थ की रचना कवि ने अपने पुत्र शोक में अभयदेवसरि के उपदे से की थी। - 1. नाहटा, रा. सा. गो. प. पृ., 17 2. जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 505 3 जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 514-15 4. गांधी, लालचन्द भगवान,-'संवेगरंगशाला आराधना' -म. जिन. स्मृतिग्रन्थ, पृ. 14-15 5. मेहता-जं. सा. बृ. इ., भाग 4, पृ. 216 6. देसाई-ज. सा. सं. इ, पृ. 3389
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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