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________________ 201 उन्होंने तात्विक और दार्शनिक विषयों में स्वतन्त्र रूप से भी बहुत कुछ लिखा है। जिनमें 'झोणी चरचा, झोणों ज्ञान, प्रश्नोत्तर तत्व बोध और जिनाज्ञा को चौढालियो' है। चरित्न प्रबन्धों में 'भिक्षु जस रसायण, हेमन बरसो, सरदार सुजस, महिपाल चरित्र' प्रमुख हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जयाचार्य की नाना विधाओं में विनिर्मित साहित्य राशि अपनी मौलिकता की प्रस्तुति के साथ-साथ शोध विद्वानों के लिये प्रचर सामग्री प्रस्तुत कर रही है। उनकी अमर कृतियां राजस्थानी साहित्य की अप्रतिम उपलब्धि है। युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी और उनकी काव्य-कृतियां: युग प्रधान प्राचार्यश्री तुलसी तेरापंथ संघ के नौवें अधिशास्ता और जैन परम्परा के महान् वर्चस्वी युगप्रभावक प्राचार्य हैं। आप ग्यारह वर्ष की वय में मुनि बने, बाईस वर्ष की अवस्था में तेरापंथ के प्राचार्य बने। पैतीस वर्ष की वय में प्रणवत अनुशास्ता बने और एक महान नैतिक क्रांति के सन्नधार बनकर अन्तर्राष्टीय क्षितिज पर एक महान शक्ति के रूप प्राए । प्राचार्यश्री की साहित्यिक प्रतिभा अनेक-अनेक धाराओं में बही है और दर्शन, न्याय, सिद्धांत, काव्य आदि साहित्य की नाना विधाओं में परिस्फुटित हई है। आपने जहां हिन्दी और संस्कृत को अपनी अमुल्य काव्य-कृतियां और ग्रन्थ-रत्न समर्पित किए हैं वहां अपनी मातभाषा के चरणों में भी अनर्थ्य मणियों का अर्थ्य चढ़ाया है। उन्होंने राजस्थानी भाषा में बहत कुछ लिखा है, जिसमें उल्लेखनीय है--'श्री काल उपदेश वाटिका, श्री कालू यशोविलास, माणक महिमा, डालिम चरित्न, मगन चरित्र' आदि कृतियां । काल उपदेश वाटिकाः-- आचार्यश्री के भावप्रवण प्रोपदेशिक गीतों एवं भजनों का उत्कृष्ट कोटि का संकलन है यह, इन गीतों में मीरां की भक्ति और कबीर का फक्कडपन दोनों ही प्रखरता लिये हुये है। श्री काल यशोविलास:-- प्राचार्यश्री की अप्रतिम काव्य कृति है--श्री काल यशोविलास । राजस्थानी भाषा में संदब्ध यह कृति काव्य परम्परा की बेजोड़ कड़ी है। भाषा की संस्कृत निष्ठता ने राजस्थानी भाषा के गौरव को कम नहीं होने दिया है, प्रत्यत उसकी सजीवता और समृद्धि का संवर्द्धन ही किया है। यह कृति काव्य परम्परा की बजोड़ कड़ी है। माणक महिमा:-- माणक महिमा आचार्यश्री की राजस्थानी भाषा में ग्रथित दूसरी काव्य कृति है। इसमें तेरापंथ के छठे आचार्यश्री माणक गणी की जीवन-गाथा गुम्फित है। इसमें तेरापंथ संघ की गौरवशाली परम्परा, इतिहास और तत्कालीन परिस्थितियों को जिस पटता से गंथा गया है वह कवि की व्यंजना शक्ति, भाव प्रवणता और अतीत को वर्तमान से सम्पक्त कर देने की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। प्रस्तुत कृति में प्राकृतिकता चित्रण और काल्पनिक की अपेक्षा कवि ने मानवीय भावों के प्राकलन में अधिक सफलता पाई है। कवित्व की दृष्टि से अनेक स्थल बडे ही चमत्कारी
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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