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________________ 376 इसीलिए 200 वर्ष पूर्व भाई रायमल्ल ने इसे जैनपुरी लिखा था । यह नगर सन् 1727 में महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा बसाया गया था । इससे पूर्व आमेर यहां की राजधानी थी । महाराजा साहित्य एवं कला के अत्यधिक प्रेमी थे । उन्होंने एक राज्यकीय पोथीखाना की स्थापना की। जयपुर नगर बसने के साथ ही यहां सांगानेर, आमेर एवं अन्य स्थानों में हजारों की संख्या में जैन बन्धु आकर बस गए थे । नगर निर्माण के साथ ही यहां बड़े-बड़े मन्दिरों का निर्माण हुआ और उनमें शास्त्रों को विराजमान किया गया । यह नगर 150 वर्षों तक विद्वानों का सारे देश में प्रमुख केन्द्र के रूप में माना जाता है । यहां एक के पीछे एक विद्वान् हो गए । आज कल जयपुर नगर में करीब 170 मन्दिर व चैत्यालय हैं। यद्यपि सभी मन्दिरों में स्वाध्याय निर्मित हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह मिलता है लेकिन फिर भी 25 मन्दिरों में तो अत्यधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह है । इसमें महावीर भवन स्थित ग्रामेर शास्त्र भण्डार, तेरह पन्थी बडा मन्दिर का शास्त्र भण्डार, पाटोदी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, पाण्डे लूणकरण जी का मन्दिर का शास्त्र भण्डार, बधीचन्द जी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, ठोलियों के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, चन्द्रप्रभ सरस्वती भण्डार, लाल भवन स्थित विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार, खरतरगच्छ ज्ञान भंडार, संघीजी के मन्दिर का शास्त्र भण्डार, लश्कर के मन्दिर का शास्त्र भण्डार आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । ग्रामेर का शास्त्र भण्डार, पहिले ग्रामेर नगर के सांवला के मन्दिर में संग्रहीत था लेकिन गत 25 वर्षों से उसे महावीर भवन जयपुर में स्थानान्तरित कर दिया गया इसमें तीन हजार से भी अधिक पाण्डुलिपियां हैं । अपभ्रंश के ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से ग्रामेर शास्त्र भण्डार अत्यधिक महत्वपूर्ण भण्डार है । पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डारों में ग्रन्थों की संख्या 2257 एवं 308 गुटके हैं। इस भण्डार में वैदिक साहित्य का भी अच्छा संग्रह है। संवत 1354 में निबद्ध हिन्दी को प्रादिकालीन कृति जिणदत्तचरित की एक मात्र पाण्डुलिपि इसी भण्डार में संग्रहीत है । जयपुर के तेरह पंथी बडा मन्दिर में भी पाण्डुलिपियों का महत्वपूर्ण संग्रह मिलता है । जिनकी संख्या तीन हजार से भी अधिक है। यहां पर पंचास्तिकाय की पाण्डुलिपि सबसे प्राचीन है जो सन् 1272 की लिखी हुई है । यह देहली में बादशाह गयासुद्दीन बलवन के शासन काल में लिखी गयी थी । इसी शास्त्र भण्डार में आदि पुराण की दो सचरित्र पाण्डुलिपियां है । संवत् 1597 (सन् 1540) की है जो कला को दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस केली पाण्डुलिपि में सकड़ों चित्र हैं । बडे मन्दिर के शास्त्र भण्डार में प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी सभी भाषाओं की पाण्डुलिपि का अच्छा संग्रह है । गोरखनाथ, कबीर, बिहारी, केशव, वृन्द जैसे जैनेतर कवियों की हिन्दी रचनाओं का अपभ्रंश भाषा के कवि अब्दुल रहमान के सन्देश रासक एवं महाकवि भारवि के 'किरातार्जुनीय' पर प्रकाश-वर्ष की संस्कृत टीका की पाण्डुलिपियों का इस भण्डार में उल्लेखनीय संग्रह है । पांडया लूणकरणजी का शास्त्र भण्डार 18 वीं शताब्दि के अन्त में पंडित लूणकरण जी द्वारा स्थापित किया गया था । इस भण्डार में उन्हीं के द्वारा लिखी हुई यशोधरचरित की एक पाण्डुलिपि है जिसका लेखन काल संवत् 1788 है। पांडेजी ज्योतिष, आयुर्वेद, मंत्राशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वाध्याय एवं ज्ञानाराधना में समर्पित कर दिया था। इस भण्डार में 807 हस्तलिखित पत्राकार ग्रन्थ एवं 225 गुटके हैं जिनमें महत्वपूर्ण साहित्य संकलित है । संवत् 1407 में लिपिबद्ध प्रवचन सार की यहां प्राचीनतम पाण्डुलिपि है । इसी तरह भट्टारक सकलकीर्ति के यशोधर चरित की जो सचित्र पाण्डुलिपि है वह कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्व - पूर्ण है । प्रारम्भ में इसमें पांडे लूणकरण जी का भी चित्र है । भण्डार का पूरा संग्रह अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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