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राजस्थानी जैन गद्य की परम्परा 7.
-अगरचन्द नाहटा
यह तो निश्चित है कि अपभ्रंश में पद्य रचनाओं की जो धारा बही वह गद्य में नहीं दिखायी देती और अपभ्रंश से ही राजस्थानी भाषा विकसित हुई इसलिए प्रारम्भिक राजस्थानी में गद्य बहुत ही कम मिलता है। राजस्थानी में काव्यों की परम्परा तो 11 वीं से 14 वीं तक में खब विकसित हो चुकी पर इस समय का राजस्थानी गद्य प्रायः नहीं मिलता। यद्यपि कुछ रचनायें लिखी अवश्य गई पर वे सुरक्षित नहीं रह सकी। कारण स्पष्ट है कि पद्य में जो लय-बद्धता
और काव्य-सौष्ठव पाया जाता है उसी के कारण उसको याद रखने में अधिक सुविधा होती है। गद्य को लम्बे समय तक मौखिक रूप में याद रखना सम्भव नहीं होता।
गद्य में अपने भावों को प्रकट करने की सुविधा अवश्य रहती है इसलिए बोलचाल में तो उसकी प्रधानता रहती है पर साहित्य गद्य में प्रायः इसीलिए लिखा जाता रहा है कि प्राकृत, संस्कृत ग्रादि भाषानों की रचनाओं को जन साधारण समझ नहीं पाते इसलिये टीका, टब्बा और बालावबोध के रूप में गद्य का व्यवहार अधिक हुआ है। मौलिक रचनायें बहुत ही कम लिखी गई। इसीलिये राजस्थानी के प्राचीन गद्य को भी हम अधिकांश बालावबोध टीकाओं के रूप में प्रयक्त पाते हैं। अभी तक 14वीं शती के पूर्व का गद्य प्रायः नहीं मिलता, गद्य का कछ अंश शिलालेखों आदि में मिलता है पर उससे भाषा का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाता।
प्राचीन राजस्थानी गद्य की मैने खोज की तो मुझे मुनि जिन विजय जी के पास एक प्राचीन प्रतिसी देखने को मिली जिसमें 12 वीं शती के सुप्रसिद्ध विद्वान् जैनाचार्य जिनवल्लभसूरि जी की प्राकृत भाषा की रचना का संक्षिप्त अर्थ लिखा हया था। मेरे खयाल से वह 13वीं शती में किसी ने प्राचार्यश्री के उक्त ग्रन्थ को जनसाधारण के बोधगम्य बनाने के लिये संक्षिप्त अर्थ लिख दिया होगा। जैसे पं. दामोदर रचित कौशली बोली का 'उक्ति-व्यक्ति प्रकरण' पाटण के जैन ज्ञान भण्डार से प्राप्त करके मुनी जिनविजय जी ने संपादित और प्रकाशित किया है-वैसे ग्रन्थों की परम्परा राजस्थानी में भी रहो है जिससे संस्कृत को सीखने में सुगमता हो। इस तरह की एक रचना 'बाल-शिक्षा' सं. 1336 में रचित प्राप्त है और वह राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित हो चुकी है। प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह' और 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ, ग्रन्थ में सं. 1330 की लिखी हुई पाराधना, सं. 1358 का नवकार व्याख्यान, सं. 1359 का सर्वतीर्थ नमस्कार स्तवन और स. 1340 और 1369 का लिखा हुमा मतिचारये कतिपय लघ पचनायें पकतई हैं। इनमें जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग अधिक उभा है। प्रतः केवल गद्य की परम्परा का प्रकट करने के लिये ही उनका महत्व है। उस समय की भाषा की थोडी झांकी इससे मिल जाती है। सं. 1330 की आराधना की प्रति ताडपत्रीय है। प्रतः वह इससे पुरानी प्रति की नकल होने पर 13 वीं शताब्दी की रचना मानी जा सकती है। इस रचना का अंतिम अंश नीचे दिया जा रहा है जिससे प्राचीनतम राजस्थानी गद्य से पाठक परिचित हो सकें -
"मतीतु निंदउ वर्तमान संवरहु अनागतु पच्चखउ । पंच परमेष्ठि नमस्कारु जिनसासनि सारु, चतुर्दशपूर्व समद्धारु, संपादित सकल कल्याण संभारु, विहित दुरिता-पहारु, क्षद्रोपद्रवपर्वतवच. प्रटारु. लीलादालतसंसारु, स तुम्हि अनुसरह, जिणिकारणी चतुर्दशपूर्वधर चतर्दश पर्वसम्बधिर ध्यान परित्यजिउ पंच परमेष्ठि नमस्कारु स्मरहि, तउ तुम्हि विशैषि स्मरवेउ, अनइ परमेश्वरि तीर्थकरदेवि इसउ अर्थ भणियउ अच्छइ, अनई संसारतणऊ प्रतिभउ मकरिसउ, अनइ रुद्धि नमस्कार बहनोकि परलोकि संपादियइ ॥ माराधना समाप्तेति ॥"