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राजस्थानी पद्य साहित्यकार 5
(1) भट्टारक सकलकीर्ति ( संवत् 1443-1499 )
भट्टारक सकलकीर्ति संस्कृत के समान ही राजस्थानी भाषा के भी जबरदस्त विद्वान थे । इसलिये जहां उन्होंने एक ओर संस्कृत भाषा में 28 से भी अधिक कृतियां निबद्ध की वहां राजस्थानी में भी सात रचनायें छन्दोबद्ध करके राजस्थानी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योग दिया है। ये 15वीं शताब्दी के विद्वान् थे तथा इनका मुख्य केन्द्र मेवाड़, बागड एवं राजस्थान में मिलने वाले गुजरात के नगर एवं गांव थे 1 इनकी राजस्थानी रचनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं
आराधना प्रतिबोध सार नेमीश्वर गीत
-- डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल
मुक्तावलि गीत
णमोकार फल गीत
सोलहकारण रास सार सीखामणि रास शान्तिनाथ फागु
णमोकार फल गीत में प्राराधना प्रति
ये सभी कृतियां भाषा साहित्य के अध्ययन की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं । 15 पद्य हैं जिनमें णमोकार मन्त्र का महात्म्य एवं उनके फल का वर्णन है । बोध सार में 55 पद्य हैं जिनमें विविध विषयों का वर्णन मिलता है। इसी तरह सार सीखाममि रास शिक्षाप्रद रचना है । इसमें 4 ढालें और तीन वस्तुबंध छन्द हैं । मुक्तावली गीत, सोलहकारण रास एवं शान्तिनाथ फागु भी लघु रचनायें अवश्य हैं किन्तु राजस्थानी भाषा एवं शैली की दृष्टि से अवश्य महत्वपूर्ण हैं । नेमीश्वरगीत एवं मुक्तावली गीत उनकी संगीत प्रधान रचनायें हैं ।
( 2 ) ब्रह्मजिनदास :
इसलिये ये योग्य गुरु के
ब्रह्मजिनदास भट्टारक सकलकीर्ति के प्रमुख शिष्य थे । योग्यतम शिष्य थे । साहित्य सेवा ही इनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य था । यद्यपि इनका संस्कृत एवं राजस्थानी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था लेकिन राजस्थानी से उन्हें विशेष अनुराग था इसलिये 50 से भी अधिक रचनायें इन्होंने इसी भाषा में लिखीं। राजस्थानी भाषा के ब्रह्मजिनदास संभवतः प्रथम महाकवि हैं जिन्होंने इतनी अधिक संख्या में काव्य रचना की हो । अपने जीवन काल में और उसके सैकड़ों वर्षों बाद तक राजस्थानी भाषा को प्रश्रय देना इनकी बहुत बड़ी सेवा मानी जानी चाहिये ।
ब्रह्मजिनदास के जन्म, जन्म तिथि, जन्म-स्थान आदि के बारे में तो निश्चित जानकारी नहीं मिलती । यह अवश्य है कि ये भ. सकलकीर्ति के शिष्य थे साथ ही लघु भ्राता भी थे । इसलिये भ. सकलकीर्ति का उन पर सबसे अधिक अनुराग रहा होगा । इन्होंने सबसे अधिक रास संज्ञक काव्य लिखे जिससे पता चलता है कि वे काव्य की इस विधा को सबसे अधिक मान्यता देने वाले महाकवि थे । रामरास को इन्होंने संवत् 1508 में तथा हरिवंश पुराण को संवत् 1520 में निबद्ध किया था । शेष रचनाओं में इन्होंने इनकी समाप्ति का कोई समय नहीं दिया । इन महाकवि की रचनाओं को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं