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________________ 3. डा. नरेन्द्र भानावत राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक डा. नरेन्द्र भानावत प्रोजस्वी वक्ता होने के साथ-साथ सफल साहित्यकार भी ह। पद्य और गद्य दोनों क्षेत्रों में प्रापने समान रूप से लिखा है। आप प्रगतिशील चेतना और जीवन आस्था के कवि हैं। आपका इन्सान को कर्मठता, अदम्य जिजीविषा और यातनाओं के खिलाफ अस्तित्व रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहने का साहसिक स्वर 'माटी कुकम' तथा 'आदमी, मोहर और कुर्सी पुस्तकों में संकलित कविताओं में मुखरित हुआ है। मानवीय संवेदना और प्रगतिशील उदार सांस्कृतिक चेतना के धरातल से लिखी गई पापको कहानियां 'कुछ मणियां कुछ पत्थर' में तथा एकांकी 'विष से अमृत की ओर' में संगृहीत हैं । कवि, कहानीकार और एकांकीकार होने के साथ-साथ आप मौलिक चिन्तक और प्रौढ़ निबन्धकार भी हैं। आपने साहित्यिक और सामाजिक संवेदना के धरातल से जैन धर्म और दर्शन को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। 'साहित्य के त्रिकोण' में आपके जैन साहित्य सम्बन्धी समीक्षात्मक निबन्ध संग्रहीत है। राजस्थानो वलि साहित्य' में जैन वेलि परम्परा का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। जिनवाणी' के संपादक के रूप में समय-समय पर लिखी गई आपकी विशिष्ट संपादकीय टिप्पणियां धर्म का तजस्विता और उसके सामाजिक दाय को उभारने में विशेष सहायक हुई है। आपके निबन्धों में पालोचना और गवेषणा के सम्यग योग से एक विशेष चमत्कृति आ जाती है। आपकी भाषा प्रांजल, शैली रोचक और विचार परिष्कृत होते हैं। एक उदाहरण देखिए "किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि प्राधनिकता और वैज्ञानिक युग धर्म के लिए अनुकूल नहीं हैं या वे धर्म के शत्रु हैं। सहो बात तो यह है कि आधुनिकता हो धर्म की कसौटो है। धर्म सहज अंधावश्वास या अवसरवादिता नहीं है। कई लोकसम्मत जीवनादर्श मिल कर ही धर्म का रूप खड़ा करते हैं। उसमें जो अवांछनीय रुढ़ि तत्त्व प्रवेश कर जाते हैं, आधुनिकता उनका विरोध करती है। आधुनिकता का परम्परा या धर्म के केन्द्रीय जोवन तत्त्वों से कोई विरोध नहीं है। उदाहरण के लिये परम्परागत मानवीय आदर्श-प्रेम, सुरक्षा, सहयोग, ममता, करुणा, सवा आदि गुण लिए जा सकते हैं। हमारी दृष्टि से आधुनिकता इन गुणों से रहित नहीं हो सकती। यह अवश्य है कि ज्यों-ज्यों सामाजिक सुरक्षा के विविध साधन अधिकाधिक प्रस्तुत हाते जा रहे हैं त्यों त्यों इन मानवीय गणों का स्थानान्तरण होता जा रहा है। पेन्शन, प्रावीडेण्ट फण्ड, जोवन बोमा आदि एजेन्सियों में व सरकारी संस्थानों में। पर यह स्मरणीय है कि धर्म को भावना ही एक ऐसा रस तत्त्व-संजीवन तत्त्व है जो आधुनिकता के परिपक्व फल को सड़ने से बचायेगा, अन्यथा उसमें कीड़े पड़ जायेंगे और वह खाने के योग्य नहीं रहेगा। ('जिनवाणी' के श्रावक धर्म विशेषांक से उधत, पृष्ठ 4) उपर्युक्त लेखकों के अतिरिक्त ऐसे लेखकों की संख्या पर्याप्त है जिनके स्फुट लेख समयसमय पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। श्रा कन्हैयालाल लोढ़ा और श्री हिम्मतसिंह सरुपरया ने आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म और दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने में अच्छा पहल का है। डा. महेन्द्र भानावत ने जैन साहित्य की लोकधर्मी परम्पराओं को उजागर करने का प्रयास किया है। श्री शान्तिचन्द्र मेहता, श्री मिट्ठालाल मरडिया, श्री रिखबराज कर्णावट, डा. इन्द्रराज बैद, श्री रत्नकुमार जैन 'रत्नेश', श्री चांदमल कर्णावट, श्री रतनलाल संघवी, श्री सुरजचन्द डांगी, श्री संपतराज डोसी, श्री जशकरण डागा, श्री प्रतापचन्द भूरा, श्री उदय नागारी आदि लेखकों ने धार्मिक-सामाजिक संवेदना से प्रेरित होकर कई लेख लिखे हैं।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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