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सौराष्ट्र में भावनगर, पालीताना, घोघा, लींबडी, बढवाण, जामनगर, मांगरोल ग्रादि स्थानों में ज्ञान भण्डार हैं । कच्छ में कोडाय और माण्डवी का ज्ञान भण्डार विख्यात है। राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर, बालोतरा, जोधपुर, नागौर, जयपुर, पीपाड़, पाली, लोहावट, फलौदी, उदयपूर गढ़सिवाना, पाहीर, जालौर, मुंडारा, चूरू, सरदारशहर, फतेहपुर, किशनगढ़, कोटा, झ झनं आदि स्थानों में नए-पुराने ग्रन्थ संग्रह ज्ञान भण्डार हैं। अकेले बीकानेर से हजारों प्रतियां बाहर चले जाने व कई तो समूचे ज्ञान भण्डार नष्ट हो जाने पर भी आज वहां लाखों की संख्या में हस्तलिखित प्रतियां विद्यमान हैं। राजकीय अनप संस्कृत लायब्रेरी में हजारों जैन ग्रन्थ हैं। पंजाब में अंबाला, होशियारपुर, जडियाला, आदि में ज्ञान भण्डार हैं तथा कतिपय ज्ञान भण्डार दिल्ली, रूपनगर में आ गए हैं। प्रागरा, वाराणसी आदि उत्तर प्रदेश के स्थानों के अच्छे ज्ञान भण्डार हैं। उज्जैन, इन्दोर, शिवपुरी आदि मध्य प्रदेश में भी कई ज्ञान भण्डार हैं। कलकत्ता, अजीमगज आदि बंगाल देश के ज्ञान भण्डारों का अपना अनोखा महत्व है। प्रागमों को प्रारम्भिक मुद्रण युग में सुव्यवस्थित और प्रचुर परिमाण में प्रकाशित करने का श्रेय यहां के राय धनपतसिंह दूगड़ को है। श्री पूरण चन्द जी नाहर की 'गलाबकुमारी लायब्रेरी' सारे देश में प्रसिद्ध है। ताड़पत्रीय प्राचीन ग्रन्थ संग्रह के लिए जिस प्रकार जैसलमेर, पाटण और खंभात प्रसिद्ध है, उसी प्रकार कागज पर लिखे ग्रन्थ बीकानेर और अहमदाबाद में सर्वाधिक हैं। दिगम्बर समाज के ताडपत्रीय ग्रन्थों में मडबिद्री विख्यात है तथा पारा का जैन सिद्धान्त भवन, अजमेर व नागौर के भट्टारकजी का भण्डार तथा जयपुर आदि स्थानों के दिगम्बर जैन ग्रन्थ भण्डार बड़े ही महत्वपूर्ण हैं ।
ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था :
प्राचीनकाल में ज्ञान भण्डार बिल्कुल बन्द कमरों में रखे जाते थे। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान भण्डार तो किले पर स्थित संभवनाथ जिनालय के नीचे तलघर में सुरक्षित कोठरी में था। जिसमें प्रवेश पाने के लिए अन्तर्गत कोठरी के छोटे से दरवाजे में से निकलना पड़ता था। अब भी है तो वहीं, पर प्रागे से कुछ सुधार हो गया है। प्रागे ग्रन्थों को पत्थर की पेटियों में रखते थे जहां सदी व जीव जन्तुओं की बिल्कुल संभावना नहीं थी। ताडपत्रीय ग्रन्थों को लकड़ी की पट्रिकाओं के वीच खादी के वीटांगणों में कस कर रखा जाता था। आजकल आधनिक स्टील की अलमारियों में अपने माप के अत्युमिनियम के डब्बों में ताडपत्रीय ग्रन्थों को सुरक्षित रखा गया है और उनकी विवरणात्मक सूची भी प्रकाश में प्रा गई है। प्राचीनकाल में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र और पत्र संख्यात्मक सूची रहती थी। कहींकहीं ग्रन्थकर्ता का नाम भी अपवाद रूप में लिखा रहता था। एक ही बण्डल या डाबड़े में कागज पर लिखे अनेक ग्रन्थ रखे जाते और उन्हें क्वचित् सूत के डोरे में लपेट कर दुसरे ग्रन्थ के साथ पन्नों के सेलभेल होने से बचाया जाता था। कागज की कमी से आजकल की भांति पूरा कागज लपेटना महओं पड़ने से कहीं-कहीं कागज की चीपों में ग्रन्थों को लपेट कर, चिपका कर रखे जाते थे। यही कारण है कि समुचित सार संभाल के अभाव में ग्रन्थों के खुले पन्ने अस्तव्यस्त होकर अपूर्ण हो जाते थे। बिछड़े पन्नों को मिलाना और ग्रन्थों को पूर्ण करना एक बहुत ही दुष्कर कार्य है ।
ताडपत्रीय ग्रन्थों को उसी माप के काष्ठफलकों के बीच कस कर बांधा जाता था। कतिपय काष्ठफलक विविध चित्र समद्धि यक्त पाए जाते हैं। शिखरबद्ध जिनालय, ती प्रतिमा चित्र, उपाश्रय में जैनाचार्यों की व्याख्यान सभा, चतुर्दश महास्वप्न, अष्टमंगलीक, बेल बटे, राजा और प्रधानादि राज्याधिकारी, श्रावक-श्राविकाएं, वादि देवसूरि और दि. कुमुदचन्द्र के शास्त्रार्थ आदि के चिवांकन पाए जाते हैं।
कागज के ग्रन्थ जिन डाबड़े-डिब्बों में रखे जाते थे वे भी लकड़ी या कुटे के बने हुए होते थे। जिन पर विविध प्रकार के चित्र बना कर वानिश कर दिया जाता था। उन डब्बों