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पर नम्बर लगाने की पद्धति भी तीर्थंकर नाम, गणधर, अष्ट मंगलीक आदि के अभिधान संकेत मय हा करते थे। हस्तलिखित कागज के ग्रन्थ पठा, पटडी, पाटिया आदि के बीच रखे जाते थे। पूठों को विविध प्रकार से मखमल, कारचोबी, हाथीदांत, कांच व कसीदे के काम से अलंकृत किया जाता था। कई पूठे चांदी, सोने व चन्दनादि के निर्मित पाए जाते हैं, जिन पर अष्ट मंगलीक, चतुदर्श महास्वप्नादि की मनोज्ञ, कलाकृतियां बनी हुई हैं। कूटे के पुठों पर समवशरण, नेमिनाथ बरात, दशार्णभद्र, इलापूत्र की नटविद्या प्रादि विषय विविध कथा-वस्तुओं से सम्बन्धित चित्रालंकृति पाई जाती हैं। कलमदान लकड़ी के अतिरिक्त कूटे के भी मजबूत हल्के और शताब्दियों तक न बिगड़ने वाले बनाए जाते थे। हमारे संग्रह में एक कलमदान पर कृष्णलीला के विविध चित्र विद्यमान हैं। जैसलमेर की चित्र समृद्धि में हंसपंक्ति, बगपंक्ति, गजपंक्ति और जिराफ जैसे जीव जन्तुओं के चित्र भी देखे गए हैं।
जैन ज्ञान भण्डारों की व्यवस्था सर्वत्र संघ के हस्तगत रहती आई है तथा उनकी चाबियां मनोनीत ट्रस्टियों के हाथ में होते हए भी श्रमण वर्ग और यतिजनों के कुशल संरक्षण में रहने से ये संरक्षित रहे हैं। अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथ में आने से अनेक ज्ञान भण्डार रद्दी के भाव बिक कर नष्ट हो गए ।
पुस्तकों को रखने के लिए जहा चन्दन और हाथीदांत से निर्मित कलापूर्ण डिब्बे आदि होते थे वहां छोटे-मोटे स्थानों में मिट्टी के माटे, बैत के पिटारे व लकड़ी की पेटियां व दीवालों में बने बालों में भी रखे जाते थे। इन ग्रन्थों को दीमक, च हों व ठंडक से बचाने के लिए यथासंभव उपाय किए जाते थे। सांप की कुंचली, घोंडावज आदि औषधी की पोटली आदि रखी जाती तथा वर्षाती हवा से बचाने के लिए चौमासे में यथासंभव ज्ञान भण्डार कम ही खोले जाते थे। ग्रन्थों की प्रशस्ति में लिख श्लोकों में जल, तेल, शिथिल बन्धन और अयोग्य व्यक्ति के हाथ से बचाने की हिदायत सतत दी जाती रही है।
ग्रन्थ रचना के अनन्तर ग्रन्थकार स्वयं या अपने शिष्य वर्ग से अथवा विशद्धाक्षर लेखी लहियों से ग्रन्थ लिखवाते थे और विद्वानों के द्वारा उनका संशोधन करा लिया जाता था। लहियां-लेखकों को 32 अक्षर के अनुष्टुप छंद की अक्षर गणना के हिसाब से लेखन शुल्क चुकाया जाता था। ग्रन्थ लिखवाने वालों के वंश की विस्तृत प्रशस्तियां लिखी जातीं और ज्ञान भण्डारों के संरक्षण की ओर सविशेष उपदेश दिया जाता था। ज्ञान पंचमी पर्व और उनके उद्यापनादि के पीछे ज्ञानोपकरण वृद्धि और ज्ञान प्रचार की भावना विशेष कार्यकारी हुई। ज्ञान की आशातना टालने के लिए जैन संघ सविशेष जागरूक रहा है और यही कारण है कि जैन समाज के पास अन्य भारतीय प्रजा की अपेक्षा सरस्वती भण्डार का सम्बन्ध सर्वाधिक रहा है।
जैन समाज शास्त्रों को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है। ज्ञान का बहमान, ज्ञानभक्ति आदि की विशद उपादेयता नित्यप्रति के व्यवहार में परिलक्षित होती है। कल्पसूत्रादि आगमों की पर्युषण में गजारूढ शोभायात्रा निकाली जाती है, ज्ञानभक्ति, जागरणादि किए जाते हैं। भगवती सूत्रादि पागम पाठ के समय धूप-दीप तथा शोभायात्रा आदि जैनों के ज्ञान-बहुमान के ही प्रतीक है। ज्ञान पूजा विधिवत् की जाती है और ज्ञान द्रव्य के संरक्षणसंवर्धन का विशेष ध्यान रखा जाता है। पुस्तकों को धरती पर न रख कर उच्चासन पर रख कर पढ़ा जाता है। उसे सांपड़ा-सांपड़ी पर रखते हैं, जिसे रील भी कहते हैं। सांपड़ा शब्द सम्पूट या सम्पूटिका संस्कृत से बना है। माधु-श्रावक के अतिचार में ज्ञानोपकरण के पैर, थूक आदि लगने पर प्रायश्चित बताया है। इसलिए बैठने के प्रासन पर भी ग्रन्थों को नहीं रखा जाता।