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कवली :
ग्रन्थ के पत्रों को अध्ययन के हेतु कवली-कपलिका में लपेट कर रखा जाता था, जिससे पत्रों के उड़ने का भय नहीं रहता। यह कवली बांस की चीप आदि को गंय कर ऊपर वस्त्रादि से मढ़ी रहती थी। बारहवीं शताब्दी में युगप्रधान श्री जिनदर सरि जी की जीवनी में कवली-कपलिका का प्रयोग होना पाया जाता है ।
कांबी:
बांस, काष्ठ या हाथीदांत की चीजों की होती थी। उसी कम्बिकावली शब्द से कांबी शब्द बना प्रतीत होता है। चातुर्मास की वर्षाती हवा लग कर पत्रों को चिपक जाने से बचाने में कोबी का प्रयोग उपयोगी था ।
जैन समाज ज्ञान के उपकरण दवात, कलम, पाटी, पाठा, डोरा, कंवली, सांपडा-सांपडी कांबी, बन्धन, वीटांगणा-वेष्टन, दाबड़ा, करण्डिया आदि को महर्ध्य द्रव्य से निर्मित और कलापूर्ण निर्मित कर काम में लाया है। ग्रन्थों को जैसे ठण्ड से बचाते थे वैसे धूप से भी बचाया जाता था। स्याही में गोंद की अधिकता हो जाने से ग्रन्थ के पन्ने परस्पर चिपक कर थेपड़े हो जाते हैं जिन्हें खोलने के लिए प्रमाणोपेत साधारण ठंडक पहुंचा कर ठण्डे स्थान में रख कर धीरे-धीरे खोला जाता है और अक्षरादि नष्ट हो जाने से भरसक बचाने का प्रयत्न किया जाता है। ग्रन्थ और ग्रन्थ भण्डार से सम्बन्धित व्यक्ति को इन बातों का अनुभव होना अनिवार्य है।
ग्रन्थों की रक्षा के लिए प्रशस्ति में लिपिकर्ता निम्नोक श्लोक लिखा करते थे:--
जलाद्रक्षेत स्थलाद रक्षेत रक्षेत शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या, एवं वदति पुस्तिका ।। 1।। अग्ने रक्षेत् जलाद् रक्षेत मूषकेभ्यो विशेषतः । कष्टेन लिखितं शास्त्र, यत्नेन प्रतिपालयेत् ।।2।। उदकानिलचौरेभ्यः, मूषकेभ्यो हुताशनात् । कष्टेन लिखितं शास्त्र, यत्नेन प्रतिपालयेत् ।।3। इत्यादि ।
ज्ञान पंचमी पर्व :
ज्ञान की रक्षा और सेवा के लिए ज्ञान पंचमी पर्व का प्रचलन हया और इसके माध्यम से ज्ञानोपकरणों का प्रच रता से निर्माण होकर ज्ञान भण्डारों की अभिवद्धि की गई। ज्ञान पंचमी पर्वाराधन के बहाने ज्ञान की पूरी सार संभाल होने लगी। उद्यापनादि में आए हुए मूल्यवान चन्द्रवे, पुठिये, झिलमिल, वेष्टन आदि विविध वस्तुओं को आकर्षक और समृद्धिपूर्ण ढंग से सजाये जाने लगे। ज्ञान की वास्तविक सार संभाल को भल कर केवल बाह्य सजावट में रचे-पचे समाज को देख कर एक बार महात्मा गांधी जैसे सात्विक वृत्ति वाले महापुरुष को कहना पड़ा कि “यदि चोरी का पाप न लगता हो तो मैं इस ज्ञान उपादानों को जैन समाज से छीन लूं क्योंकि वे केवल सजाना जानते हैं, ज्ञानोपासना नहीं" । अस्तु ।
पारिभाषिक शब्द :
प्रस्तुत निबन्ध में अनेक जैन पारिभाषिक शब्दों, उपकरणों आदि का परिचय कराया गया है फिर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों का परिचय यहां उपयोगी समझकर कराया जाता है।