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________________ 156 18. अप्यसंबोह कव्व 16. सम्मत कउमुदी 17. दशलक्षण जयमाल 18. षोडशकारण जयमाल 19. सांतिणाह चरिउ 20. मिणाह चरिउ 21. करकंड चरिउ 22. भविसयत्त चरिउ 4. विनयचन्द्रः-- कविवर विनयचन्द्र माथुरसंघ के भट्टारक उदयचन्द्र के प्रशिष्य और बालचन्द मुनि के शिष्य थे। इनकी अब तक तीन रचनायें चनडीरास, निझर पंचमी महारास एवं कल्याणक रास उपलबध हो चकी हैं। प्रथम दो रचनायें कवि ने त्रिभवनगिरि में निबद्ध की थीं। कवि ने अपनी प्रथम रचना चुनडीरास त्रिभवनगिरि के राजा कुमारपाल के भतीजे अजयपाल के बिहार में बैठकर निर्मित की थी। कवि के समय में त्रिभवनगिरि जन-धन से समद्ध था । कवि ने उसे 'सग्गखण्डणं धरियल आयउ' अर्थात् स्वर्ग-खण्ड के तुल्य बतलाया है। अजयराज तहनगढ़ के राजा कुमारपाल का भतीजा था तथा उसके बाद राज्य का उत्तराधिकारी हुआ । संवत् 1253 में मोहम्मद गोरी ने उस पर अपना अधिकार कर लिया और नगर को तहसनहस कर दिया । अजयराज का नाम करौली के शासकों में दर्ज है। इसलिये 13 वीं शताब्दि में यह प्रदेश त्रिभुवनगिरि के नाम से प्रसिद्ध था । चूनडीरास:-- - यह कवि की लघु-कृति है जिसमें 32 पद्य है । रास में चूनडी नामक उत्तरीय वस्त्र को स्पक बनाकर एक गीति-काव्य के रूप में रचना की गई है। कोई मुग्धा युवती हंसती हुई अपने पति से कहती है कि, हे सुभग ! जिन मन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चनडी सीध छपवा दीजिये जिससे मै जिन शासन में विचक्षण हो जाउं । वह यह भी कहती है कि गदि आप वैसी चनडी छपवा कर नहीं देंगे तो वह छीपा मझे तानाकशी करेगा। चुनड़ी राजस्थान का विशेष परिधान है जिसे राजस्थानी महिलायें विशेष रूप से बोढ़ती है । यह राजस्थान का विशेष वस्त्र है । कवि ने इसी के आधार पर रूपक काव्य का निर्माण किया है। रचना सरस एवं आकर्षक है। निज्झर पंचमी कहा रास :-- - यह कवि की दूसरी रचन है जिसमें निर्झर पंचमी के व्रत का फल बतलाया गया है । कवि ने लिखा है कि आषाढ शुक्ला पंचमी के दिन जागरण करे और उपवास करे तथा कार्तिक के महीने में इसका उद्यापन करे अथवा श्रावण में आरम्भ करके अगहन के महीने में उसका उद्यापन करे उद्यापन में छत्र चमरादि पांच-पांच वस्तुयें मन्दिर में भेंट करें । यदि किसी की उद्यापन करने की शक्ति न हो तो व्रत को दूने समय तक करे । कवि ने इस रास को भी त्रिभुवनमिरि में निबद्ध किया था । कल्याणकरास:-- यह वि की तीसरी कृति है इसमें तीर्थकरों के पांचों कल्याणकों की तिथियों आदि का वर्मन किया गया है।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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