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________________ 813 किन्तु प्राण का मोह त्याग जो निकल पड़ा है। उस जन को बाधाओं ने है कब कब रोका? -साध्वी श्री जयश्री मुझे न जाने सहजतया क्यों प्रिय लगता संघर्ष ? और उसी में प्रांका करती मैं अपना चिरहर्ष । ---साध्वीश्री कमलश्री युग-युग चलती रहूं इसी पथ, ले संयम का भार। थकने का क्या प्रश्न ? अगर कुछ है चलने में सार।। -साध्वीश्री राजीमती हिन्दी कविता को तेरापंथ की देन व्यापक और बहुमुखी है। तेरापंथी साधु और साध्धियों के काव्य का अध्ययन किया जाए तो हिन्दी कविता की प्रायः सभी शैलियों और प्रवृत्तियों को इसमें खोजा और पाया जा सकता है। एक ओर प्राचार्यश्री तुलसी के प्रबन्ध काव्य हैं तो तो दूसरी ओर मुनिश्री नथमलजी, मुनिश्री रूपचन्द्रजी की नई कविताएं हैं, जो अपनी भावाभिव्यक्ति की नई भंगिमा के कारण ही नहीं, अपने नए भावबोथ के कारण भी अधुनातन कविताओं में सम्मिलित की जा सकती है। गीत और मक्तक लिखने वाले कवियों की संख्या सबसे अधिक है। परन्तु मुनि विनयकुमार 'आलोक' और मुनि मणिलाल ने लघु कविताओं के क्षेत्र में भी नए प्रयोग किए हैं। संभवतः कुछ कवि अकविता के आन्दोलन से भी प्रभावित हुए हो। परन्तु, इस सम्पूर्ण वैविध्य में एक समानसूत्रता भी पाई जाती है। कथ्य की दृष्टि से इस संपूर्ण काव्य-साहित्य में नैतिक मल्यों की प्रतिष्ठा है और व्यक्ति को 'असंयम' से 'संयम' की ओर ले जाने की प्रवृत्ति का प्राधान्य है। किसी भी कवि ने मानव की क्षुद्र कामनाओं और वासनाओं को नहीं उभारा है और नहीं जीवन के प्रति कोई अनुदात्त दृष्टिकोण ही उपस्थित किया है। इस काव्य-सृजन का लक्ष्य राग-रंजन नहीं, मनुष्य का नैतिक उन्नयन और आध्यात्मिक उन्मेष है। इस काव्य का महत्व इस बात में है कि इस महत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उपदेश और प्रवचन की मुद्रा को अपना कर केवल नीवन की सतह पर उतारने का प्रयास नहीं किया गया है। कवियों ने जीवन के अन्तस्तल में अवगाहन कर गहन भावानुभूतियों का स्वयं साक्षात्कार ही नहीं किया है, उन्हें सह दयों के लिए शब्द के माध्यम से संप्रेषित भी किया है। अनेक और कवयित्रियों का उल्लेख नहीं किया जा सका है, क्योंकि लेखक के परिचय कीप्रपनी सीमाए हैं। इसे किसी के प्रति उपेक्षा और अवज्ञा का सूचक नहीं माना जाना चाहिए। डा. मूलचन्द सेठिया के. 7, मालवीया मार्ग सी-स्कीम, जयपुर (राजस्थान) ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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