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________________ 314 मंजुलाजी के काव्य में कहीं-कहीं वे रहस्यात्मक संकेत भी प्राप्त होते हैं जिनके मूल में मानव की अपने आपको जानने की जिज्ञासा होती है। आत्मोपलब्धि के चरणों में कवयित्री ने इस चिर पुरातन सत्य का नवाम्देष किया है: हम भी भोले हिरणों की ज्यों बहुत बार धोखा खाते हैं। जिनको पाना बहुत सरल है उनके लिए उलझ जाते हैं । सूई जो खो गई सदन में बाहर कैसे मिल पाएगी ? जिसको हम ढूंढते युगों से वह अपने में ही अन्तर्हित । । 'साक्षी' है शब्दों की' साध्वी संघमित्राजी की कविताओं का संकलन है । safrat के हो शब्दों में 'अपने भावों और कल्पनाओं को शब्दों के सांचे में ढाल कर कविताओं की काया की गढ़ा गया है।' इसमें कुछ गीतिकायें है और कुछ मुक्त छन्द में लिखी हुई कविताएं । साध्वी संताजी न किसी वाद से प्रतिबद्ध हैं और न उनका कोई वैचारिक आग्रह है । साधना पथ की अनुभूतियों को प्रकृत्रिम अभिव्यक्ति प्रदान करने के अतिरिक्त कवयित्री ने युग-जीवन की यथार्थता को भी चित्रित करने का प्रयास किया है । निकट के यथार्थ को छोड़कर आज का मानव सुदूर स्वप्नों के पीछे दौड़ रहा है: वसुधा का विस्तार बहुत कोई बसना भी जाने लगा रहा इन्सान किन्तु चन्दा पर नए निशाने मोर पपीहे आकाशी बूंदों पर प्राण गंवाते । साध्वी सुमनश्री जी के 'सांसों का अनुवाद' में जीवन और जगत के रहस्यों को अनुभूति के धरातल पर लिपिबद्ध किया गया है। आपकी काव्य-दृष्टि अन्तर्मुखी है और आप बाह, य-जीवन का चित्रांकन भी अपने अन्तर की ही रंग-रेखाओं से करती हैं । इस संग्रह की सभी कविताओ का एक ही रूपाकरण है और अपनी भाषा को एक परिष्कृत सौन्दर्य प्रदान करने की दिशा में सुमनश्रीजी विशेष सक्रिय रही है: धूल भरा श्राकाश हो जाता है धूप छांह का कभी-कभी प्राभास दिन घटना चक्रों के रथ हैं थामे हाथ क्षणों को श्लथ हैं दौड़ रहा है अश्व समय का ले जीवन का श्वास । प्राचार्य श्री तुलसी के धवल समारोह के अवसर पर सोलह साध्वियों की कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन 'सीप और मोती' के नाम से प्रकाशित हुआ था । इस संग्रह की रचनाओं पढ़कर ही यह प्रतिति होती है कि ये कवयित्रियां अगर वागदेवता की प्राराधना करती रहीं तो एक दिन साहित्य-जगत् का अपनी अमूल्य भेंट अर्पित कर सकेंगी। इन कविताओं में सुख-दुःख के प्रति समभावना, लक्ष्य के प्रति मटूट विश्वास, साधना - मार्ग की प्रतिकूलताओं को हंसते हंस सहन करने का संकल्प और जीवन के प्रति एक उदात्त दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हुई है। कविताओं के उद्धरण अप्रासंगिक नहीं होंगे: कुछ मेरा प्रेय मिले मुझको यह जब जब सोचा तब तब बाधाओं ने आकर उसको नोचा
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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