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प्राचार्य वीरसेन के समय के संबंध में कोई विवाद नहीं है क्योंकि उनके शिष्य आचार्य जिनसेन ने जयधवला टीका को शक संवत 156 की फाल्गुन शुक्ला दशमी के दिन पूर्ण किया था। इसलिये वीरसेन का समय इस संवत के पूर्व ही होना चाहिये। डा. हीरालाल जन ने धवला टीका का समाप्तिकाल शक संवत् 738सिद्व किया है। इसलिय वीरसेन 9वीं शताब्दी (ईस्वी सन् 816) के विद्वान थे।
घवला टीका :-"षटखण्डागम" पर 72000 श्लोक प्रमाण प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में मणि-प्रवाल न्याय से धवला टीका लिखी गई है। यह षटखण्डागम के अन्य पांच खण्डों की सबसे महत्वपूर्ण टीका है। टीका प्रमेय बहुल है तथा टीका होने पर भी यह एक स्वतंत्र सिद्धान्त ग्रंथ है । टीका की प्राकृत भाषा प्रौढ मुहावरेदार एवं विषय के अनुसार संस्कृत की तर्क शैली से प्रभावित है। पं. परमानन्द शास्त्री के शब्दों में इसमें प्राकृत गद्य का निखरा हया स्वच्छ रूप वर्तमान है। सन्धि और समास का यथास्थान प्रयोग हुआ है और दार्शनिक शैली में गम्भीर विषयों को प्रस्तुत किया गया है । टीका में केवल षटखण्डागम के सूत्रों का ही मर्म उद्घाटित नहीं किया गया किन्तु कर्म-सिद्धान्त का भी विस्तृत विवेचन किया गया है। आचार्य वीरसेन गणित-शास्त्र के महान विद्वान थे इसलिये इन्होंने वृत्त, व्यास, परिधि, सूची व्यास, घन, अर्द्धच्छद घातांक, वलय व्यास और चाप आदि गणित की अनेक प्रक्रियाओं का महत्वपूर्ण विवेचन किया है। गणित के अतिरिक्त टीकाकार ने ज्योतिष और निमित्त संबंधी प्राचीन मान्यताओं का भी स्पष्ट वर्णन किया है। षटखण्डागम का वर्ण्य विषय 'जीवट्ठाण' खद्धाबंध, बंध-सामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा और महाबंध है। इन्हीं का प्राचार्य वीरसेन ने अपनी धवलाटीका में विस्तृत वर्णन किया है।
प्राचार्य देवसेन
देवसेन नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं जिनकी गुरु परम्परा एवं समय भिन्न-भिन्न हैं प्रस्तुत आचार्य देवसेन प्राकृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। मालवा की धारा नगरी इनका प्रमुख साहित्यिक केन्द्र था लेकिन राजस्थान में भी ये प्रायः बिहार करते रहते थे और जन-जन में ससाहित्य और सद्धर्म का प्रचार किया करते थे। ये 10वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के विद्वान् थे।
देवसेन क्रान्तिकारी विद्वान् थे। ये दर्शन एवं सिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इतिहास से उन्हें रुचि थी तथा देश एवं समाज में व्याप्त बुराइयों की निन्दा करने में यह कभी पीछे नहीं रहते थे। पं. नाथूराम प्रेमी न इनकी चार कृतियां स्वीकार की हैं जिनके नाम है-दर्शनसार भावसंग्रह. तत्वसार, और नयचक्र । डा. नेमीचन्द शास्त्री ने उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त, आराधनासार एवं आलापपद्धति इनकी और रचना स्वीकार की है। इन रचनाओं का सामान्य परिचय निम्नप्रकार है
___ 1. दर्शनसार:-यह कवि की एक मात्र कृति है जिसमें कृति का रचनाकाल दिया हुआ है। कवि ने इसे संवत 997 माघ शुक्ला दशमी के दिन समाप्त की थी। यह एक समीक्षात्मक कृति है जिसमें विभिन्न दार्शनिक मतों के प्रवतक के रूप में ऋषभदेव के पौत्र मारीचि को माना है। इसके पश्चात् द्रविड संघ, यापनीय संघ, काष्ठा संघ, माथुर संघ तथा भिल्ल्ल संघ की उत्पत्ति एव उनकी
(वसेन क अक्खड स्वभाव का पता चलता है। इन्होंने अन्तिम गाथा में अपनी स्पष्टता व्यक्त करते हये लिखा है
रूसउ तूसउ लोमो सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स । किंजय-मए साठी विवज्जियव्वा परिदेण ।