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सत्य कहने वाले साधु से कोई रुष्ट हो, चाहे सन्तुष्ट हो, इसको चिन्ता नहीं। क्या राजा को यूका (जुओं) के भय से वस्त्र पहिनना छोड़ देना चाहिए? कभी नहीं। .
दर्शनसार में गाथाओं की संख्या 51 है।
2. भावसंग्रहः-यह प्राकृत भाषा का विशाल ग्रंथ है जिसमें 101 गाथायें है । इसमें चौदह गुणस्थानों को आधार बनाकर विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। देवसेन ने अपने समय में फैले हुए अंधविश्वास, रूढिवाद पर काफी प्रकाश डाला है। वह लिखता है कि यदि जल स्नान से समस्त पापों का क्षालन संभव हो तो नदी, समुद्र और तालाबों में रहने वाले जलचर जीवों को कभी का स्वर्ग मिल गया होता। इसी तरह जो श्राद्ध द्वारा पितरों की तप्ति मानता है वह भ्रम में है। किसी के भोजन से किसी की तृप्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार अन्य दर्शनों की प्राचार्य देवसेन ने अच्छी समीक्षा की है। गाथाओं की भाषा अत्यधिक मधुर है।
3. आराधनासार:-प्रस्तुत कृति में प्राकृत गाथानों की संख्या 115 है। इनमें सम्यक् दर्शने, सम्पज्ञान एवं सम्यक् चारित्न तथा तप रूम चारों आराधनाओं का अच्छा वर्णन दिया गया है। विषय विवेचन की अच्छी शैली है। यह एक उद्बोधनात्मक कृति है जिसमें इस आत्मा से अपने स्वभाव में निरत रहने को कहा है। जनता वृद्धावस्था नहीं पाती है, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है आयुरूपी जल समाप्त नहीं होता है तब तक आत्म कल्याण के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। जो व्यक्ति यह सोचता रहता है कि अभी तो युवावस्था है, विषय सुख भोगने के दिन है वह वृद्धावस्था आने पर कुछ नहीं कर सकता है :
जर वाग्विणी ण चंपइ, जाम ण विमलाइ इंति अक्खाई। . बद्धि जाम ण णासइ, आउजलं जाम ण परिगलाई। जा उज्जमो ण वियलइ, संजम-तव-गाण-झाण जोएसु । तावरिहो सो पुरिसी, उत्तम ठाणस्स संभवई ।
प्राचार्य देवसेन ने आगे कहा है कि मन को वश में करने की शिक्षा देनी चाहिये। जिसका मन वशीभत
है वही रागद्वेष को नाश कर सकता है और रा-द्वेष के नाश क प्राप्ति होती है।
सिक्खह मगवसियरणं सवतीहूएण जैण मणुपाणं । णासंति रायदोसे तेसि णासे समो परमो ।। 6 411
4. तत्वसार:-पह प्राचार्य देवसेन की चतुर्य-कुति है। यह ए लवु आध्यात्मिक रचना है जिसकी गाथा संख्या 14 है। कवि ने बतलाया है कि जिसके न कोव है, न मान है, न माया है और न लोभ है, न शल्य है और न लेश्या है, जो जन्म-मृत्यु से रहित है वही निरंजन मात्मा है :
जस्स ण कोहो माणो माया लोहों ण सल्ल लेस्सायो। जाइ जरा मरण चिय णिरंजगो सो अहं मणिप्रो।
5. नयचक्र:-यह कवि की पांचवीं कृति है जिसमें उसने प्रात गाथाओं में नयों का मूत रुप में बढ़त सन्दर वर्णन किया है। नयों के मजरूप से दो भेद है:--एक धाथि और दसरा पर्यायार्थिक। सर्वप्रथम आचार्य श्री ने लिखा है कि जो नय-दृष्टि से विहीन है उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होतो: