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राजस्थान के प्राकृत साहित्यकार: 4
-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल
प्राचार्य धरसेन
प्राचार्य धरसेन प्राकृत भाषा के महान् ज्ञाता थे। प्राकृत के प्रसिद्ध ग्रंथ 'धवला' में नको अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल तथा मंगश्रुत के रक्षक के रूप में स्मरण केया है। सौराष्ट्र देश की गिरनगर की चन्द्रगुफा में निवास करते थे और वहीं से राजस्थान के प्रदेशों में भी विहार करते थे। नारायणा (जयपुर) के जैन मन्दिर में प्राचार्य धरसेन के संवत् 1083 (सन् 1029) के चरण-चिन्ह अाज भी सुरक्षित रूप से विराजमान हैं। इसलिये राजस्थान एसे महान आचार्य पर गौरवान्वित है ।
प्राचार्य धरसेन के चरणों में बैठकर ही आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि ने प्राकृत भाषा का एवं सिद्धान्त का अध्ययन किया। वास्तव में वे सफल शिक्षक एवं प्राचार्य थे। दिगम्बर परम्परा में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने भगवान महावीर क पश्चात् सर्व प्रथम षट खण्डागम की रचना की और ज्ञान को विलुप्त होने से बचाया। इस महान कार्य में प्राचार्य घरसेन का सर्वाधिक योगदान रहा।
घरसेन की प्राकृत-कृति 'योनि-पाहुड' की एक मात्र पाण्डुलिपि रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना के शास्त्र भण्डार में बतलाई जाती है। आचार्य धरसेन का समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। प्राचार्य वीरसेन
प्राचार्य वीरसेन जैन-सिद्धान्त के . पारंगत विद्वान थे, इसके साथ ही गणित, न्याय, ज्योतिष एवं व्याकरण आदि विषयों का भी उन्हें तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त था।
आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन जैसे उच्चस्तरीय विद्वान इनके शिष्य थे। प्राचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण एवं घवला प्रशस्ति में इनका 'कवि-वन्दारक' उपाधि के साथ स्तवन किया है।
आचार्य वीरसेन एलाचार्य के शिष्य थे। डा.हीरालाल जैन का अनुमान है कि एलाचार्य इनके विद्यागुरु थे। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से ज्ञात होता है कि एलाचार्य चित्रकूट (चित्तौर) में निवास करते थे और चित्तौड़ में रहकर ही आचार्य वीरसेन ने एलाचार्य से सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इसी कारण वीरसेन जैसे प्राचार्य पर राजस्थान को गर्व है।
शिक्षा-समाप्ति के पश्चात् आचार्य वीरसेन चित्तौड़ से बाटग्राम (बडोदा) चले गये और वहां पानतन्द्र द्वारा बनवाये हुय जिनालय में रहने लगे। इसी मन्दिर में इन्होंने 72000 श्लोक प्रमाण षट्खण्डागम, की घक्ला टीका लिखी। धवला टीका समाप्ति के पश्चात प्राचार्य वीरसेन ने कषाय प्राभूत पर 'जयघवला' टीका प्रारम्भ की और 20000 श्लोक प्रमाण टीका लिखे जाने के उपरान्त आचार्य वीरसेन का स्वर्गवास हो गया। पश्चात् उनके शिष्य प्राचार्य जिनसेन ने अवशिष्ट जयघवला टीका 40000 श्लोक प्रमाण लिखकर पूर्ण की।