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बैलों को लेकर फिर उस ठग के पास गया और बोला--'आप इन बों को खरीद लो। इनके बदले मुझे दो पाली सत्तु दे दो। किन्तु वह सत्तु आपकी भार्या के द्वारा ही लूंगा।'
दस सौदे का भी गवाह बनाकर गाड़ीवान की बात इसलिये मान ली कि दो पाली सत्त में बैल मिल जायेंगे। किन्तु जब उसकी भार्या गाडीवान को सत्तु दने आयी तो गाडीवान
'वाला दाथ पकड कर अपने घर ले जाने लगा। ठग के द्वारा विरोध करना वान ने कहा कि तुम पिजड़े की कीमत देकर जब मेरी पूरी गाड़ी ले सकते हो तो मैं भी जो सत्त को लिये हुये है ऐसी तुम्हारी पत्नी को ले जाता हूं ।
इस तरह के अनेक कथानक हरिभद्र के प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं। उन्होंने न केवल लोकभाषा को आगे बढ़ाया है, अपितु लोक-जीवन को भी अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। हरिभद्र की प्राकृत कथाप्रो की ये प्रवृत्तियां उत्तरवर्ती प्राकृत कथा-ग्रन्थों में भी परिलक्षित हाती है ।
ज्ञानपंचमीकहा
मदेश्वरसरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे। इनका राजस्थान से क्या संबंध था वह इनकी कृतियों से स्पष्ट नहीं होता। इस नाम के आठ प्राचार्य हुये हैं। इनकी गरुपरम्परा राजस्थान में विकसित हुई है। इनका यह 'ज्ञानपंचमीकहा' ग्रन्थ भी राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध रहा है। संभवतः वि. सं. 1109 के पूर्व इस ग्रन्थ की रचना हो चुकी थी ।
ज्ञानपंचमीकहा में श्रुतपंचमीव्रत का महात्म्य प्रतिपादित किया गया है । यह व्रत सुख-समद्धि को देने वाला है यह बात कथा म कही गयी है। कथा के नायक भविष्यदत्त के विदेश चले जाने पर उसकी मां कमलश्री श्रुतपंचमी व्रत करती है। फलस्वरूप भविष्यदत्त सकुशल अपार सम्पत्ति के साथ घर लौटता है। इस मुख्य कथा के साथ इस ग्रन्थ में अन्य नौ अवान्तर कथाय और हैं। इनमें सत् और असत् प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों के चारितिक संघर्ष को सुन्दर ढंग से निरूपित किया गया है। कथाओं में पौराणिक पुट स्पष्ट नजर आता है। लोकोक्तियों का अच्छा प्रयोग हुआ है। यथा
"माइ गडेण चिय तस्स विसं दिज्जए कि व।" (जो गुड़ देने से मरता है उसे विष देने से क्या ?)
निर्वाण लीलावतीकथा
इस कथा ग्रन्थ के रचयिता जिनेश्वरसूरि राजस्थान के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। गुजरात में भी मापने ग्रन्थ लिख है। इस ग्रन्थ की रचना वि. सं. 1090 के लगभग आशापल्ली नामक स्थान में हुई थी। यह पूरी कथा प्राकृत पद्यों में लिखी गयी थी जो इस समा उपलब्ध नहीं है। इस प्राकृत ग्रन्थ का संस्कृत भाषान्तर उपलब्ध है। इससे पता चलता है कि मल प्राकृत ग्रन्थ में
1. देशाई-ज. सा. सं. इ. अनु क्रमणिका, प. 861 । 2. जैन, प्रा. सा. इ., पृ. 440 । 3. मुनि जिनविजय 'कथाकोषप्रकरण' की भूमिका ।