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________________ 26 क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि विकारों के जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त होने वाले फलों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में काव्य तथा कथा तत्व की अपेक्षा उपदेश तत्व की प्रधानता है। इस समय तक प्राकृत कथाओं का इतना अधिक प्रचार हो चुका था कि स्वतन्त्र कथा ग्रन्थों के साथ-साथ प्राकृत को कथाओं के कोष-ग्रन्थ भी राजस्थान में लिखे जाने लगे थे। निर्वाणलीलावतीकथा के लेखक का ही 'कथाकोष-प्रकरण' नामक ग्रन्थ प्राकृत में उपलब्ध है। कथाकोष-प्रकरण यह ग्रन्थ कहारयणकोस' नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके मूल में 30 गाथाएं है, जिनकी व्याख्या करने में जिनश्वरसूरि ने 36 मुख्य एवं 4-5 अवान्तर कथाएं प्राकृत में निबर की हैं। यह ग्रन्थ वि. सं. 1108 में मारवाड़ के डिण्डिवानक नामक गांव के श्रावकों के अनुरोध पर लिखा गया है । लेखक ने सरस कथाओं को सुबाध प्राकृत गद्य में प्रस्तुत किया है। यत्र-तन संस्कृतअपभ्रंश के पद्य भी उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ में संग्रहीत कथाओं में तत्कालीन सामाजिक स्थिति, जन-स्वाभाव, राजतन्त्र एवं धार्मिक संगठनों का सुन्दर चित्रण हुआ है। नीतिकथाओं का ये कथाएं प्रतिनिधित्व करती है। संगीतकला आदि के महत्वपूर्ण सन्दर्भ इस ग्रन्थ में हैं। कहारयणकोस इस कथा-कोष के रचयिता गणचन्द्रगणि हैं , जो जिनेश्वरसूरि की शिष्य-परम्परा में सुमतिवाचक के शिष्य थे। खरतरगच्छ के इन प्राचार्यो का कार्य-क्षेत्र राजस्थान रहा है । अतः गुणचन्द्रगणि (देवभद्रसूरि) का भी राजस्थान से सम्बन्ध माना जा सकता है। यद्यपि इनकी रचनाएं गुजरात में अधिक लिखी गयी है। कहारयणकोस की रचना वि. सं. 1158 में भरुकच्छ नगर के मुनिसुव्रत चैत्यालय में की गयी थी। इस ग्रन्थ में कुल 50 कथाएं हैं। सभी कथाएं रोचक एवं जीवन के प्रादर्श को उपस्थित करने वाली है । इनमें विभिन्न प्रकार के चरित्न है, जा लेखक की सृजनात्मक प्रतिभा के द्योतक है। यह ग्रन्थ तत्कालीन संस्कृति का भी परिचायक है। प्राकृत गद्य-पद्य में इसे लिखा गया है। अपभ्रंश एवं संस्कृत का प्रयोग भी यत्न-तनहा है। आख्यानमणिकोश उसके रचयिता नमिचन्द्रसूरि है। इनके अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ये राजस्थान व गजरात में विचरण करते थे। प्राबू के निकट चन्द्रावती में भी इन्होंने ग्रन्थ लिखे हैं । इस आख्यानमणिकोश में धर्म के विभिन्न अंगों को हृदयंगम कराने वाला उपद५ प्रद 146 लध् कथाएं संकलित है। आम्रदेवसूरिन ई. सं. 1134 में इस ग्रन्थ पर टीका लिखा है। मूल ग्रन्थ एवं टीका दोनों प्राकृत में है। इस ग्रन्थ की कथाए मानव-स्वभाव के विभिन्न रूपों को उपस्थित करती है। उपकोश और तपस्वी का पाख्यान व्यक्ति के मानसिक द्वन्द्व का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। कई 1. मुनि जिनविजय, क. प्र. भूमिका । 2. जैन, प्रा. सा. इ., पृ., 448 ।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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