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________________ 27 आख्यान परीकथा के तत्वों से समाहित हैं ।। सुभाषितों का ग्रन्थ में अच्छा प्रयोग हुआ है। यथा उप्पयउ गयणमग्गजउ कसिणत्तण पयासेउ ।। तह वि हु गोब्बर ईडो न पायए भमरचनियाई ॥ रयणसेहरीकहा यह कथा ग्रन्थ 15 वीं शताब्दी में जिनहर्षसूरि द्वारा चित्तौड़ में लिखा गया था । नहर्ष संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनकी यह कथा प्राकृत कथा साहित्य की सुन्दर प्रेम कथा है। जायसीकृत पद्मावत का इसे पूर्व रूप कह सकते हैं । __ कथा का नायक रत्नशेखर रत्नपुर का रहने वाला है । उसके मन्त्री का नाम मतिस.गर है। एक बार राजा किन्नर-दम्पति के वार्तालाप में सिंहलद्वीप की राजकुमारी रत्नावली की प्रशंसा सुनता है। उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठता है। उसका मन्त्री मतिसागर जोगिनी का रूप धारणकर रत्नावली के पास जाता है। उसे वर-प्राप्ति का उपाय बतलाते हए कहता है कि तुम्हारे यहां के कामदेव के मन्दिर में जो तुम्हारे मार्ग का रोकेगा वही तुम्हारा पति होगा। मन्त्री लौटकर रत्नशेखर को रत्नावलि के पास ले जाता है। उनका कामदेव मन्दिर में मिलन होने के बाद विवाह हो जाता है। राजा रत्नशखर अपने नगर में लौटकर पर्व के दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इससे उसके लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं। इस तरह यह कथा मानव प्रेम के सात्विक स्वरूप को उपस्थित करती है। इसमें काम के स्थान पर प्रेम को प्रधानता दी गयी है, जो जीवन में अपूर्व आनन्द का संचार करता है। इस कथा में एक उपन्यास के समस्त तत्व और गुण विद्यमान हैं। कथा में गद्य व पद्य दोनों का प्रयोग सरस शैली में हुग्रा है। ग्रन्थ में कई सूक्तियां प्रयुक्त हुई हैं। यथा वर-कन्या का उचित संयोग मिलना लोक में दुर्लभ है“वरकन्ना संजोगी अणुसरिसो दुल्लहो लोए" जिसके घर में युवा कन्या हो उसे सैंकड़ों चिन्ताएं रहती है"चिंता सहस्स भरिप्रो पुरिसो सब्वोवि होइ अणुवरयं । जुव्वण-भर-भरिअंगी जस्स घरे वहए कन्ना ।" विरह का दुख बड़ा कठिन है"दिण जायइ जणवत्तणी पुण रत्तडी न जाई" । 1. शास्त्री, प्रा. सा. प्रा. इ. पृ. 503 । 2. वही पृ. 510।
SR No.003178
Book TitleRajasthan ka Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherDevendraraj Mehta
Publication Year1977
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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