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इस तरह राजस्थान के प्राति-प्रन्थों में कथाग्रन्थों की अधिकता है । भारतीय कथा-साहित्य प्रात की इन कथाओं से प्रभावित हया है। इन कथानों के अनेक अभिप्राय अन्य भाषाओं की कथाओं में उपलब्ध होते हैं ।। प्राकृत की ये कथाएं धर्म और नैतिक आदर्शों से जुड़ी हुई है। यद्यपि इनमें काव्य तत्वों की कमी नहीं है।
2. प्राकृत चम्पू-काव्य:
प्राकृत साहित्य में पद्य एवं गद्य की स्वतन्त्र रचनाएं उपलब्ध है। कथा एवं चरित ग्रन्थों में पद्य एवं गद्य की मिश्रित शैली भी प्रयुक्त हुई है। किन्तु भारतीय साहित्य में जिसे चम्पू विधा के नाम से जाना गया है, उसका प्रतिनिधित्व प्राकृत में उद्योतनसूरि की कुवलयमाला कहा ही करती है। संस्थत एवं प्राकृत के अन्य चम्पू काव्य कुवलयमाला के बाद ही लिखे गये हैं।
कुवलयमालाकहा
आचार्य उद्योतनसूरि 8वीं शताब्दी के बहुश्रुत विद्वान थे। उनकी एक मात्र कृति कुवलयमाला हा उनके पाण्डित्य एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा का निष्कर्ष है। उद्योतनरि ने न केवल सिद्धान्त-ग्रन्थों का महन अध्ययन और मनन किया था, अपितु भारतीय साहित्य की परम्परा और विधानों के भी वे ज्ञाता थे। सिद्धान्त, साहित्य और लोक-संस्,ति के सुन्दरसामंजस्य का प्रतिफल है--उनकी कुवलयमालाकहा ।
कुवलयमाला की रचना जाबालिपुर (जालौर) में वि. सं. 835 ई. सम् 179 में हुई थी। उद्योतनसूरि ने वहां के ऋषभ जिनेश्वर के मन्दिर के उपासरे में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखा था। उस समय रणहस्तिन् वत्सराज का वहां राज्य था। इस तरह इतनी प्रामाणिक सूचनाएं इस ग्रंथ में होने से इसकी साँस्कृतिक सामग्री भी महत्वपूर्ण होगयी है।
उद्योतनसूरि ने इस ग्रन्थ में क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मोह जैसे विकारों को पात्रों के रूप में उपस्थित किया है। इन पांचों की प्रमुख कथाओं के साथ कुवलयचन्द्र और कुवलयमाला के परिणय, दीक्षा ग्रादि की कथा भी इसमें वर्णित है। कुल 27 अवान्तर प्राकृत कथाएं इसमें हैं। भारतीय लोक-कथाओं का प्रतिनिधित्व कुवलयमाला की कथाओं द्वारा होता है।
कवलयमालाकहा राजस्थान की प्राकृत रचनाओं में कई दष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसमें प्रथम बार कथा के भेद-प्रभेदों में संकीर्ण कथा के स्वरूप का परिचय दिया गया है, जिसका उदाहरण यह कृति स्वयं है। क्रोध आदि अमूर्त भावों को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने से कुवलयमाला को भारतीय रूपकात्मक काव्य-परम्परा की जननी कहा जा सकता
1. लेखक का निबन्ध--'पालि-प्राकृत कथाओं के अभिप्राय-"एक अध्ययन"
---राजस्थान भारती, भाग 11, अंक 1-3
2. जावालिउरं अट्ठावयं व अह विरइया तण । -णिम्मविया बोहिकरी भव्वाण होउ सव्वाणं ।।।
-कुव. 282, 21-23